

लघुकथा
किसकी है आज़ादी
“जश्ने आज़ादी मुबारक।”
“बाबा नागार्जुन को जानती हो?”
“हाँ, नाम सुना है, जनवादी कवि , लेखक थे।”
“उनकी कविता भेजता हूँ, पढ़ना उसे।”
“सहमत हूँ बाबा की कविता से, पूरी तरह सहमत।”
“तभी तो तुमसे दोस्ती है। कितना कुछ मेरी तरह सोचती हो।”
“दूसरी तरह से सोचें तो मैं खुद कई ऐसे परिवारों को जानती हूँ जहां स्वतंत्र महिलाएँ अपने परिवार के आश्रित पुरुषों की गुलामी करती हैं, जबकि आर्थिक रूप से पूरा परिवार ही उन पर आश्रित है। मादरे आज़ादी का वे कैसा और कैसे जश्न मनाएँ?”
“वैसे मेरे साथ जॉब करने वाली अधिकांश शिक्षिकाएँ अपने बैंक एकाउंट और एटीएम को उपयोग नहीं कर पाती। यही तो पितृसत्ता का घिनोना चेहरा है, जो आज़ाद मुल्क की कामकाजी महिलाओं को भी आज़ादी की साँस नहीं लेने देता।”
“सखा! नागार्जुन का विचार राजनीतिक तंत्र से प्रेरित होकर भी ये तो अहसास दिलाता ही है कि पहले परिवार में स्वत्त्व मिले तभी तो आगे देश की आज़ादी की बात हो, आप मरे तो बाप किसे याद आये?”
“ओह! कितना महीन सोचती हैं आप, आभार रहेगा दोस्त।”
“अफ़सोस है कि आज़ाद भारत की नारी आज भी सोचती मात्र है, वह अभी भी अपने साथी को, अपने सखा को, आज़ादी की संध्या पर एक कप चाय तक को आमंत्रित नहीं कर पाती। और हम हर साल आज़ादी का जश्न मनाते जाते हैं, सिर्फ जश्न ही मनाते हैं।”
“सही मायने में देश में प्रेम करने तक की आज़ादी नहीं है, और हम बात बड़ी बड़ी करते हैं। पितृसत्तात्मक समाज मे आज़ादी की कल्पना करना ही बेमानी है।”
–सन्दीप तोमर
दिल्ली

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

लाजवाब सृजन! कटु यथार्थ की सटीक अभिव्यक्ति!
आभार