

लघुकथा
ईमान
“ये लो बीबीजी…! छत्तीस रुपए हुए, चार रुपए वापस दे दो। रद्दी तोलकर चालीस रुपए गृहस्वामिनी की ओर बढ़ते हुए कालू बोला।
” तुम लोग भी ना… आजकल पैसे कम देते हो। चल अब चार रुपए बाद में कभी ले लेना” गृहस्वामिनी ने जवाब दिया और चालीस रुपए लेकर पलट गई।
अगले दिन रद्दी वाले कालू ने फिर दरवाजे पर आवाज लगाई।
” आज ही आ गया… तेरे चार रुपए रख थोड़ी रही थी।”
” मैं तो आपको यह देना आया था। बीस रुपए उनकी ओर बढ़ाते हुए कालू बोला– वह कॉलोनी में जो मैडम जी रहती है ना उन्होंने आपकी रद्दी में पड़े दो झंडे देख लिए। उसके उन्होंने मेरे को बीस रुपए दिए.. वही आपको देने आया था।
गृहस्वामिनी मुँह बाये कभी बीस रुपए देख रही थी, तो कभी अपने हाथ में पकड़ा झाड़न का कपड़ा, जो कभी झंडा हुआ करता था।
–ज्योति जैन
इन्दौर-452011

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
