काव्य : दंगाई – श्वेता विशाल झा गुरुग्राम

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दंगाई

मेरे शहर में दंगे हो रहे हैं….
बगल में कुछ बच्चे अधनंगे रो रहे हैं
उनकी झुग्गी जल गई 
बाप को कोई घसीट ले गया
मां काम से वापस नहीं लौटी
जाने उसके साथ क्या हुआ ?
किसी की दुकान जला दी गई 
किसी की गाड़ी 
जाने किससे खार खाए
बैठे हैं ये दंगाई 
निर्दोषों का चैन सुकून छीन
किसका भला होगा
बजरंगबली खुश होंगे या
खुदा रहमत बरसाएगा
दंगाइयों के चेहरे पर कुत्सित मुस्कान है
उनकी कोई जाति नहीं कोई  धर्म नहीं
वो दंगाई हैं बस यही उनकी पहचान है।

श्वेता विशाल झा
गुरुग्राम

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