काव्य : बचपन के दिन – सुमन सिंह चन्देल मुजफ्फरनगर

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बचपन के दिन

मैं आज भी
तुम्हारी बात
वैसे ही मानती हूँ माँ,
जैसे बचपन के दिनों में
तभी न,
मुझे बच्ची कह देते हैं
कभी- कभी बच्चे भी!
रहती हूँ अति सावधान
सड़क पार करते
देखती हूँ दाएं-बाएं
गुजर जाने देती हूँ
द्रुत गति से दौडते वाहन,
और तब
मेरे भीतर गुजरता है
फिर से
गुजरा हुआ
बचपन…
पिता हाथ थामें
हो जाते हैं पार
सहजता से
और मैं महसूस करती हूँ
सम्पूर्ण सुरक्षा…
रहती हूँ आश्वस्त…

आज उसके साथ
सड़़क पार करते
फिर लौट आये बचपन के दिन…
अपनी जीवटता के बूते
वह दौड़ते ट्रैफिक को चीर
हो गया पार क्षण भर में ही
उसने भी देखा होगा दांए- बाएं,
नहीं पता,
नहीं गुजरी आज एक लम्बी प्रतीक्षा से…
न कुछ कहा उसने
न थामा हाथ,
बराबर -बराबर चल रहे थे साथ…
कितना आसान था वो पल
एकबारगी मन हुआ कि थाम लूँ उसका हाथ मैं ही…
पर मेरे भीतर रहती
सचेत स्त्री ने पूछा
यूँ सरेराह…
और फिर उसने दोनों हाथों में संभाला है तुम्हारा मन,
अब भूल भी जाओ बचपन!

सुमन सिंह चन्देल
मुजफ्फरनगर

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