

लघुकथा
याचना के भाव
हर एक काम से जुड़े व्यक्ति की छवि हमारे मस्तिष्क में बनी हुई होती है। किसान का जिक्र आते ही हम उत्तर भारतीय लोग, धोती लपेटे बनियान धारी, धूप में काम करके जल गई त्वचा और असंख्य झुरिर्योंदार चेहरे वाले व्यक्ति की कल्पना करने लगते है। किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में कायर्रत का जिक्र आते ही छरहरे बदन पर आधुनिक वस्त्र, नफासत से सँवारे गये बाल और गले में लिपटी टाई धारी की छवि सामने आ जाती है।
इसी तरह भीख मांगने वाले की कल्पना करते हैं तो एक याचनापूर्ण भाव लिए चेहरा उभर आता है।
यह सारी भूमिका इसलिए है कि हम अपने मन पर रख़े बोझ को कुछ कम कर लेना चाहते हैं।
जब से अखबार में उस अज्ञात भिखारिन की हृदयाधात से हुई मृत्यु का समाचार पढ़ा है, मन में अपराध बोध सा महसूस होने लगा था।
चलिए अब विस्तार से बात कर ही लेते हैं।
दरअसल क्या है कि हमारे घर से आफिस तक पहुंचने के दो रास्ते हैं। सुविधानुसार हम किसी भी रास्ते से प्रतिदिन आफिस चले जाते हैं।
वह हमें कभी-कभी आफिस जाते समय एक रास्ते में तेज-तेज कदमों से पैदल जाते हुए दिखती। आफिस से लौटते समय वह, निश्चित रूप से रास्ते में किनारे पर एक पेड़ की छाया में फट्टा बिछाकर एक विशेष मुद्रा में बैठी दिखती। विशेष मुद्रा यह कि पालथी मार कर एक हाथ गोद में व दूसरा घुटने पर आगे कर उसकी हथेली फैला लेती थी।
लगभग सत्तर-पचहत्तर वषीर्य सलवार-सूट पहनने वाली उस वृद्धा के चेहरे पर याचक वाले भाव नही होते थे। उसकी आंखों में याचना नहीं, रोष होता था। हमने प्रायः उसे चुपचाप उसी मुद्रा में बैठे देखा।
जिज्ञासुवृत्ति और अति संवेदनशील होने के कारण कई बार मन हुआ कि रूक कर उससे कुछ बात करें। पूछे कि वह कौन है, कहां से आई है, रहती कहां हैं आदि आदि।
आफिस समय से पहुंचने की बाध्यता व उसके चेहरे से गुम याचना के भाव ने हमें रूककर कभी उसे कुछ देने को मजबूर नहीं किया। आम तौर पर ऐसा होता तो नहीं है किंतु उसके साथ ऐसा हुआ कि हमने कभी उसे एक पैसा भी नहीं दिया।
शनिवार या रविवार का दिन था। आम दिनों में सरसरी तौर पर पढ़ा जाने वाला अखबार, आॅफिस की छुट्टी होने के कारण काॅफी पीते हुए इत्मीनान से पढ़ा जा रहा था।
हृदयाधात से हुई वृद्धा की मृत्यु शीषर्क के समाचार को जब पढ़ा तो उसमें वणिर्त खबर से अपने आप को जुड़ा हुआ महसूस करने लगे। यह सब कुछ देर का ही था।
खैर, सोमवार आते-आते वह घटना हमारे दिमाग से विस्मृत हो गई थी।
आफिस जाते समय वृद्धा की वह निश्चित जगह जब आई तो वह समाचार फिर याद आ गया। आज वह जगह खाली थी। सोचा रास्ते में मिल जायेगी। लेकिन रास्ते में भी नहीं मिली।
एक दिन, दो दिन, तीन दिन होते-होते आज पांच दिन हो गये थे। वह वृद्धा फिर दिखाई नहीं दी। इसका मतलब वह समाचार इसी वृद्धा के बारे में था।
यह अहसास होते ही मन अपराधबोध से भर गया।
इससे क्या फर्क पड़ता है कि उसके चेहरे पर याचना के भाव नहीं थे। रही होगी वह किसी संपन्न परिवार से और परिस्थितिवश यह हालात हो गये हों। कम से कम इस एक बात से उसके प्रति सहानुभूति कम तो नहीं हो सकती।
खैर, अब बस यह अपराधबोध ही शेष था।
–कमलेश झा
झांसी

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
