लघुकथा : ख़ुद की तलाश – प्रदीप ध्रुवभोपाली भोपाल

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लघुकथा

ख़ुद की तलाश

वह अपनी बाल्यावस्था मे यह विचार करता रहा कि,उसका वर्तमान जैसा वैसा सदैव रहेगा,यानि उसका बचपन और समृद्ध वातावरण सदैव दीर्घावधि तक बना रहेगा और अवसान कभी न होगा।
लेकिन हुआ यह कि छः सात वर्ष की अवस्था में उसके पिताजी का दादा जी और बड़े ताऊजी से हिंस्सा बटवारा होने पर जब यकायक वक्त और ठाट वाट में बदलाव आया तथा मुसीबतें घर करने लगीं तो समझ आया कि यह सब क्षणभंगुर है,वक्त कभी भी बदल सकता है और अमीरी ग़रीबी में या ग़रीबी अमीरी में बदल सकती है।
आख़िर इन घटनाओं का बालमन पर गहरा प्रभाव हुआ और अंत में उसने कठिन परिस्थितियां देख,व असह्य होने पर कभी इहलीला समाप्त करने या संसार से सन्यास लेने विचार करने लगा।
इस प्रकार समय आगे बढ़ता रहा और हुआ यह कि उसके नगर मे एक प्रख्यात संत पधारे जो साप्ताहिक सत्संग करने हेतु आए हुए थे,उनके सत्संग श्रवण हेतु वह बालक गया और ज्ञान प्रवचन को नित्य ध्यान से श्रवण करने लगा।जिसमें महाराज श्री का वह बचन उसके मन पर घर कर गया कि यह शरीर और सभी सांसारिक वस्तु नश्वर है और एक आत्मा है जो कि अमर है।इसलिए इसका अभ्यास करते हुए स्वयं की खोज़ या ख़ुद की तलाश मे लग जाना चाहिए।मृत्यु से न डरते हुए अमर आत्मा का आभास कर मृत्यु भय पर विजय प्राप्त कर लेना चाहिए, तथा अहम् ब्रह्मास्मि का चिन्तन करते हुए नश्वर शरीर व संसार से.मोह त्याग करना अमरत्व है,अर्थात् मैं केवल शरीर नहीं अमर आत्मा हूँ।अहम् ब्रह्मास्मि, मै जीव नहीं ब्रह्म हूँ,यही परमसत्य है,और यही पर स्वयं की की खोज़ या तलाश पूरी हो गई, अहम् ब्रह्मास्मि.. अहम्..ब्रह्मास्मि…..।।।

प्रदीप ध्रुवभोपाली
भोपाल

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