लघुकथा : दस रुपये – अनिता रश्मि रांची

लघुकथा

दस रुपये

रमेश सदा खिच-खिच करता। अपनी जिद से टस से मस नहीं होता। रिक्शेवाले से उलझना रोज का काम। आज भी वह लंबी दूरी तय कर गंतव्य पर पहुँचते ही उतरा और रिक्शेवाले की ओर आदतन कम पैसे बढ़ाए।
“इतना कम?…नय साॅब! और दस रुपये दें।”
“चल, आगे बढ़। कितना भी दो, तुमलोगों का पेट ही नहीं भरता।”
“इसीलिए भाड़ा तय करके आना ठीक रहता है।”
रिक्शेवाला बुदबुदाया लेकिन हथेली नहीं बढ़ाई। रमेश ने रुपये सीट पर रख दिए। आवाज चाबुक की तरह पड़ी – ये भी उठा लो साॅब। इससे मैं अमीर नय बन जाऊँगा।
“अरे! बहस किए जा रहा है। विक्रम से आना चाहिए था मुझे। समय भी बचता, कम पैसे भी लगते।…लेना है लो, नहीं तो जाओ भाड़ में।”
रमेश पलटा, जाने लगा। पीछे से आवाज,
“रिक्शा डिजल, पेटरोल से नय चलता साॅब। खून से चलता है।”
ठिठका रमेश, अचानक पता नहीं क्या हुआ। जेब से निकाल बीस का नोट सीट के ऊपर रखे नोट पर रखा और चुपचाप आगे बढ़ गया।

अनिता रश्मि
रांची

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