

लघुकथा
सजा
नागेश्वर थाने में खड़ा है, इस घटना से बुरी तरह विचलित है और उसे लग रहा है कि वही गुनहगार है।
मन में विचार आ रहा है कि काश माँ मान जाती। कितनी बार उसे समझाया था कि आफिस के पास जो फ्लैट लिया है ,वहीं चलकर साथ रहे। अब यह शहर बहुत व्यस्त हो गया है। बड़ी बड़ी कंपनियों के आफिस आ गये हैं,लोग बढ़ गये हैं। आफिस के समय ट्रैफिक जाम हो जाता है। इससे समय बहुत लगता है और थकान भी होती है।
लेकिन माँ टस से मस नहीं हुई। मां की कहीं बातें कानों में गूंज रही है,
” नहीं इस घर को छोड़कर मैं अभी नहीं जा सकती,तुम्हारे पिता नहीं हैं तो क्या उनकी यादें जुड़ी हैं। तुम सबके बचपन की यादें हैं, मैं अकेली नहीं हूं। ”
माँ का दिमाग स्वीकार ही नहीं करता कि उनकी उम्र हो रही है। उन्हें अकेले नहीं रहना चाहिए। उन्होंने घर और बाहर दोनों की जिम्मेवारी साथ- साथ निभाई है। वे स्कूल में टीचर रही हैं। वे अभी भी मन से बहुत मजबूत हैं।
नागेश्वर की पत्नी को आफिस आने- जाने में और अधिक समय लगता। गर्भधारण के बाद डाक्टर ने उसे सफर कम करने को कहा है। दो महीने पहले ही नागेश्वर ने आफिस के पास के फ्लैट में शिफ्ट किया। वीकेंड पर माँ से मिलने जाता। माँ ही उसे समझाती कि जिनके बच्चे बाहर चले गये हैं,वे क्या यहाँ अकेले नहीं रह रहे?
लेकिन अकेले रहने का ये अंजाम होगा किसी ने नहीं सोचा था। सुबह- सुबह काम करने वाली ने फोन किया कि घर का गेट खुला हुआ है,आप लोग जल्दी आएं । आकर उसने देखा कि माँ कमरे में खून से लथपथ मरी पड़ी है,आलमीरा का सारा सामान बिखरा पड़ा है। देखकर लग रहा है कि रात में ही यह घटना हुई है।
नागेश्वर यही सोच रहा है कि अपराधी सोना- चाँदी ले लेते, लेकिन माँ को छोड़ देते। अब थाने- पुलिस करने से मां तो नहीं मिलेगी, लेकिन इंसान के वेष में जिस हैवान ने ये काम किया है, उसे सजा तो ज़रूर मिलनी चाहिए।
–शेफालिका सिन्हा
रांची।

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

बहुत ही अच्छी, यथार्थवादी लघुकथा।
बधाई शेफालिका जी