लघुकथा : चक्रव्यूह – यशोधरा भटनागर देवास

लघुकथा

चक्रव्यूह

“हेलो! कौन शॉम्पा! कहाँ है तू?कितने दिनों से तेरा कोई पता- ठिकाना ही नहीं है। बस सुना है कि तूने दूसरी शादी कर ली।”
मैं बोले चली जा रही थी।
“मैडम!मैडम! मैं तो हूँ ही मनहूस। मेरे साथ क्या अच्छा होगा?मत पूछो उस लड़के ने मुझे फँसा दिया और मेरी दोनों बेटियों के साथ मुझे यहाँ ले आया।”
“यहाँ कहाँ?”
” पता नहीं मैडम जी।
मैं पढ़ी-लिखी तो हूँ नहीं। यहाँ आजू बाजू में बहुत कम लोग रहते हैं।दूर- दूर तक बस रेत ही रेत है मैडम।”
और वह फफक कर रोने लगी।
“शॉमू क्यों रो रही है? दोनों बेटी कैसी हैं!”
“पता नहीं मैडम।”
“क्या ?”
“उसने उन्हें…..।”
“ओह! तो तू वहाँ से….”
“क्या है? किससे बात कर रही है?”(एक भारी भरकम आवाज़)
“उई माँ! मेरे केश छोड़।”
चटाक! चटाक! खट् से फोन कट गया।
एक के बाद दूसरे चक्रव्यू का शिकार हो गई शॉम्पा।
“शॉम्पा!शॉम्पा!”
94567xxxxxx
जिस नंबर से आप संपर्क करना चाहते हैं वह उपलब्ध नहीं है।
“चक्रव्यूह!”

यशोधरा भटनागर
देवास

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