लघुकथा : मूक साक्ष्य – शील निगम मुंबई

लघुकथा

मूक साक्ष्य

घड़ी की टिक-टिक न जाने कब से बन्द पड़ी थी पर समय का पहिया तेज गति से घूमता जा रहा था।साक्षी थीं जर्जर हवेली की मूक दीवारें। जिन्होंने हवेली के राजसी वैभव की शानो-शौकत देखी थी।
हवेली के आँगन के बीचों-बीच एक चबूतरे पर पड़े नर-कंकाल की चाक-चौबंद सुरक्षा करते थे चार बड़े-बड़े कुत्ते।मज़ाल किसी की जो हवेली में पाँव भी रख सके। वफ़ादारी उन्होंने तब भी निभाई थी जब राज परिवार का आखिरी बाशिंदा ज़िन्दा था और अब उसके कंकाल हो जाने के बाद भी।
आख़िर इतनी तो समझ थी कि मालिक को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। इसलिए एक कुत्ता हमेशा पहरेदारी पर रहता। बाकी बारी-बारी बाहर खाना-पीना कर आते।
चोरों को हवेली में गड़े खजाने की तलाश थी।
कुत्तों को बिना मालिक के घूमते देख उनके हौसले बुलंद हो गये। हवेली में तैनात अकेले कुत्ते को साइलेंसर लगी बंदूक का निशाना बनाया।अंदर घुस कर हवेली का मुख्य द्वार अंदर से बंद कर दिया।
पूरी हवेली छान मारने के बाद आख़िर खज़ाना मिला तो कंकाल के नीचे चबूतरे के अंदर।
खज़ाना लूट कर बाहर निकले ही थे कि बाहर खड़े कुत्तों ने हमला कर दिया।
टी.वी. चैनल पूरी खबर दिखा रहे थे पर खज़ाना किसी को नहीं दिखा।
हवेली की मूक दीवारों को पूरी जानकारी थी पर उनकी मजबूरी थी कि वे गवाही तक नहीं दे सकीं।

शील निगम
मुंबई

1 COMMENT

  1. लघुकथा मूक साक्ष्य में घटनाओं और पात्रों का तालमेल नहीं है। अधूरी कहानी सी लगती है।

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