

लघुकथा
हक़ीक़त
मई का महिना फिर भी सब दूर सन्नाटा छा गया था, जीवन मानो अंधेरे में चलनेवाली रेल हो गया था। पहाड़ों पर गर्मियों में आनेवालों की चहक जागी ही नहीं। मई 2020 पहाड़ों पर सैलानियों की आवाजाही बंद हो गई, क्योंकि कोरोना इस शब्द के साथ महामारी को भी जोड़ दिया था। पूरी दुनिया को इस महामारी के हाहाकार ने बंद कर दिया था।
सारी दुनिया अपना कारोबार समेट केवल जान की दुहाई मांगने लगें, यह हालात सबके लिए समझ से बाहर हो गए थे।
प्रदीप का पहाड़ियों मे बसे उस छोटे से गांव मे मां-बाप के साथ ठीक से गुजारा चल रहा था। प्रदीप के बाबा पिढियों से चलती आयी दुकानदारी करते थे, प्रदीप उनका अकेला बेटा था। इस दुकान में उसने आधुनिक कंप्यूटर, प्रिंटिंग, फोटोकॉपी जैसे कामों को अपने लिए जोड़ दिया था, वह इस दुकान को आधुनिक बनाकर वहीं बसना चाहता था।
वैसे पहाडों पर घूमने वाले सैलानियों को यह जगह काफी पसंद थी। शहर से पास और बजट में रहने-खाने का बंदोबस्त यहां हो जाता था। दिनभर घने पेड़ों के बीच पहाडियों पर घूमने के लिए यह एक अच्छी जगह मानी जाती थी।
प्रदीप भी अपनी दुकान की आमदनी से खुश था। उसने कभी सोचा न था, यह कोरोना काल उनपर भी इतना भारी पड़ेगा।
शहर से जो सामान लेने वह जाता था, सब मिठाई की दुकानें बंद हो गयी थी। आने जाने के लिए उसकी बाईक थी, जिसके लिए आनेजाने का सरकारी परवाना बनाकर वह शहर में जा रहा था, यह भी प्रदीप को बडी मुश्किलों से मिला था। जितना उनकी दुकान में सामान था, लोग जमाखोरी ना करें, इसलिए थोड़ा थोड़ा कर बेच रहा था। अब तो बेचने के लिए शहर से कुछ ला नहीं सकता था, तो दुकान मे बैठे भी कैसे और किस लिए? इस बात का उसके मन पर एक अजीब सा दबाव बढ़़ रहा था। लेकिन वह घर में कुछ बोल नहीं रहा था।
गांव के लोगों ने सभी गांव के तरफ आने – जाने वाली सरहदों को बंद कर दिया था। वहां पहरेदारी लगायी गयी थी। पुलिस भी रोजाना गश्त लगा रहे थे।
शहर में प्रदीप के मामाजी रहते थे, उनकी एक ही बेटी थी। शादी के बाद ससुराल में खुश थी। प्रदीप शहर जाकर पहले मामाजी के घर उनको मिलता था। फिर अपनी दुकान के लिए सेंव, वेफर्स, चाकलेट्स, बिस्कुट जैसी चीजों को खरीदकर वापस घर आता था। मामाजी के यहाँ जब भी जाने के लिए वह तैयार हो जाता था, तो जाते समय उनके लिए अपने गांव से दूध और घी ले जाता था।
अब इस संकट के समय पहाड़ियों के लोगों को जिनके पास पशुधन था,कुछ तो दूध वगैरह का सहारा हो गया था।
रोजाना काम पर आकर दुकान कि साफ सफाई करनेवाली जमुना भी तय समय पर हाजिरी दे जाती थी। आज खाली- खाली सा दुकान देख वह भी रुआंसी हो गई थी।
वह दुकान का रोजाना का काम ख़त्म कर प्रदीप की मां से जाकर मिली। वह मां को धीमी सी आवाज में बोली, “मां जी, एक बात कहनी थी। आपने तन्ख्वाह नहीं दी, तो भी चलेगा। मैं आपके यहां का दूसरा काम भी करूंगी। बस मुझे काम से मत निकालना।“
महामारी कोरोना से उपजे हालात अभी भी अस्पष्ट थे, गरीबों के लिए काम पर टिकना जरूरी था।
मां ने उसको डपटते हुए कहा, “ऐसा तूने सोचा भी कैसे? तुझे हमने पराया कभी भी नहीं समझा, जानती भी है । डरना नहीं समय कभी रूकता नहीं। यह बुरा समय भी निकल जायेगा।”
जमुना को तो यह सुनकर जैसे एक दिलासा ही मिल गया। वह तुरंत बोली, “ मां जी, आप कहती हो तो आपकी बात सच ही होगी।“
जमुना ने अपने पुराने कपडे के रूमाल से एक पपीता निकालकर मां जी के पास रख दिया। “मां जी, यह पपीता रखती हूँ।”
वह अपनी झोपड़ी के पास खाली पड़ी जमीन पर फल, सब्जियों की शौक से खेती करती थी। जो उसके अपने लिए एक सहारा हो जाता था।
प्रदीप की मां जमुना का दिया पपीता देख हैरान हो गई थी। ऐसे वक्त में जब लोगों ने सामान इकट्ठा करना शुरू किया है, यह पगली बांट रही है।
मां ने उसके रूमाल मे साबुत चना डाल दिया।
दोनों एक-दूसरे को देखने लगी।
जैसे उन दोनों की आंखों से यही बात टपक रही थी,
‘बुरा वक्त ठहरता नहीं, हम सबको साथ मिलकर ही इसको निकालना होगा।‘
जमुना घर आयी। उसका छोटा बेटा लिपटकर पूछने लगा, “अम्मा, आज बिस्कुट लाया ..”
“बेटा, रास्ते बंद है। भैय्या जब रास्ता खुलेगा, बिस्कुट लायेगा।“
अब राजू को समझाने के लिए जमुना ने उपर का पुराना टीन का डिब्बा निकाला। डिब्बे में बिस्कुट के दो-तीन टुकड़े थे। वह राजू को दिखाकर बोली, “अब यह खा लो। दुबारा जिद नहीं करना।“
राजू ने एक टुकड़ा अम्मा के मुंह में देते हुए कहा, “तो अब आप भी इसको खा लो। हम भी जब भैय्या बाजार जायेंगे। तभी आपको मांगेंगे।“
राजू का तेवर देख जमुना ने उसके सर पर हाथ फेरा,”अब आप ही खा लेना। मैं अपने लिए भुट्टे भूनती हूँ।”
वह आंगन में लकडिय़ों को सुलगाकर मक्के के भुट्टों को भुनने लगी। वह छोटीसी उपजाऊ जमीन उसको और बच्चे को भूख से बचा रही थी।
राजू का पिता जो शहर में मजदूरी का काम करता था, काम की आस लिए शहर मे वहीं बैठा था। उसको घर वापसी अभी भी मंजूर नहीं थी।
जमुना इस इंतजार में थी कि, वह इस महामारी से बचकर कैसे भी उनके पास गांव आ जाये। जैसा भी हो यहां गुजारा कर लेंगे।
गांव की औरतें अजीब-अजीब बातें कर रही थी। गांव कि गलियां जो केवल दोपहर में सूनी होती थी, अब महामारी के डर से दिन में भी सूनी हो गई थी। अफ़वाहों का जोर थम नहीं रहा था। उसके पास एक मोबाईल फोन था, रोजाना बाते करनेवाला उसका मर्द पैसे बचाने के लिए कम बाते करने लगा था, फोन भी एक या दो मिनट में बंद कर दिया करता था।
उसका दिल बहुत बैचेन हो रहा था। शाम ढल चुकी थी, वह झोपड़ी के बाहर आकर अंधेरे मे खड़ी हो गई। उपर आकाश में देखने लगी।
कैसे
दूर देस गया
पिया
मेरा गीत सूख गया
यह बोल अनायास उसके गले से झरने लगे।
अंधेरा भी इस गीत मे उभरे रुदन से थर्रा उठे ऐसे हालात को समय चुपचाप देख रहा था।
तभी दरवाजे के पास कुछ धडाम से गिरने की आवाज़ ने उसको जगाया। वह उधर देखकर चिल्ला कर बोली, “राजू…दौड़..”
वह राजू का पिता था, बहुत धीमी गति से उसकी सांसें चल रही थी, बेहोश होकर वह गिर गया था।
राजू बाबा.. बाबा.. कहकर उनको लिपट कर रोने लगा। जमुना असहाय सी उसके मुंह पर पानी की छिंटे मारकर जगाने की कोशिश करने लगी, भूखा-प्यासा, लडख़ड़ाते हुए वह आ तो गया, बस अब जिंदगी की इस जंग में जीतने के लिए धीमी गति से चलनेवाली सांसें ही बस हिंमत थी।
रात के अंधेरे में इक अलगथलग कच्चे झोपड़ी में चला यह रुदन हर घर की हक़ीक़त बन चुकी थी।
– लतिका जाधव, पुणे
( महाराष्ट्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

संपादक, श्री. देवेंद्र भाई सोनी जी,
मेरी लघुकथा युवाप्रवर्तक में प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत आभार!
बहुत ही मार्मिक और सच में हकीकत। लतिका मैडम लघुकथा पढ़ते समय की बार आंखों में आंसू आए। की नजारे नजरों में घूम गए। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति। बधाई।