

लघुकथा
विचार और भावना
कई दिनों से इस उपन्यास को पढ़ रही हूँ। ढाई सौ पन्ने की पुस्तक पढऩे में मुझे अमूमन ढाई घंटे लगते हैं लेकिन यह पुस्तक तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही। दरअसल इस पुस्तक पर पिछले कई दिनों से अटकी हुई हूँ। पन्ने दर पन्ने पढ़ते हुए रुक जाता है मन।
पुस्तक के पहले पन्ने पर नायक रिवॉल्विंग चेयर पर बैठते ही अपनी टाई की गाँठ के ढीलेपन को कसता है। उसकी आँखों में अहं की चिंगारी-सी चमकने का जिक्र होते ही मुझे तुम्हारी याद आई थी।
पहली बार की घंटी बजाने पर तुरंत हाजिर न होने के लिए उसने जब प्यून को फटकारा था, मुझे तुम्हारा ही चेहरा उसमें कौंधा था। इसी तरह की अफसरी कभी तुम मुझ पर निकाला करते थे।
कैफेटेरिया में जब अपने सहकर्मियों के साथ अपनी प्राइवेट सेक्रेटरी के बारे में गॉशिप करते हुए उससे अपने रिश्तों को चटकारे लेकर वह बता रहा था और सहकर्मी ठहाके लगा रहे थे, उस दृश्य को पढ़ते हुए मन जार-जार रो उठा। अक्सर चुप-चुप सी रहने वाली प्राइवेट सेक्रेटरी जिसके लिए नौकरी जीविका का एक मात्र साधन था, उसके चरित्र को लेखक ने भी तो संघर्षरत ही दिखाया था और संस्कार से परिपूर्ण भी। इस बात का जिक्र भी कि सभी के लिए आदर का भाव रखते हुए अपने कार्य में लगी रहना उसकी आदत थी। उसका सारा काम वक्त पर तैयार रहता था। उसकी टेबल पर कभी फाईलें पेंडिंग नहीं रहती हैं।
वह ऑफिस में किसी से घुली-मिली नहीं है, सिवाय इस नायक के। स्टाफ के दूसरे लोग उसके बारे में जानने के लिए लालायित रहते थे इसलिए नायक से अक्सर उसकी चर्चा छेड़ दिया करते थे।
उपन्यास के अगले पन्नों पर ऑफिस में उसके प्रति लोगों का बढ़ता सम्मान नायक को अंदरूनी तौर पर विचलित करता दिखाई देता है।
कई पृष्ठों पर नायक ने तुम्हारी तरह अपनी हरकतों से संकीर्ण मानसिकता का परिचय दिया है। पढ़ रही हूँ। साँस थामे निरंतर गति से पढ़ती ही जा रही हूँ। पंक्ति दर पंक्ति इस कहानी के माध्यम से तुम्हारा चरित्र भी खुल रहा है। और पढते हुए इधर मेरा मन भी घट-बढ़ रहा है।
पुस्तक के सौंवे पन्ने तक आते-आते उस प्राइवेट सेक्रेटरी को प्रमोशन भी मिल जाता है और वह नायक के सामानांतर अधिकारी बन जाती है।
नायक के चेहरे पर छायी मुर्दनी में, उस पीले जर्द चेहरे के पीछे तुम्हारा चेहरा एक बार फिर से कौंधता है।
एक सौ पचासवें पन्ने पर सहकर्मियों ने प्राइवेट सेक्रेटरी के प्रमोशन पाकर अधिकारी बनने पर, उसके ऑनर में एक आयोजन रखा है। कुछ लोगों के आग्रह पर उसे मंच पर बुलाया जाता है। इस मुकाम तक पहुँचने में उसके संघर्ष को जानने के इच्छुक लोग उसकी ओर कौतुहल भरी निगाहों से देख रहे हैं।
उसके हाथों में माइक है। वह स्पीच देते हुए नायक की ओर इशारा करते हुए कहती है- ‘‘मेरे प्रमोशन का श्रेय इनको देती हूँ।’’ सबने आश्चर्य से नायक की ओर देखा।
मुझे भी आश्चर्य हुआ था, फिर ध्यान आया कि प्राइवेट सेक्रेटरी से अधिकारी बनी वह तो ‘वसुधैव…..’ की भावना में जीने वाली पात्र है। वह संवेदनाओं को जीने वाली, कण-कण में जीवन मूल्यों को तलाशने वाली स्त्री है, इसलिए उसका कहना वाजिब ही था।
पुस्तक पढ़ रही हूँ। अभी-अभी नायक के अंदर पितृसत्तात्मक अहंकार से भरे कई और नए चेहरे उभर कर आए हैं। मैं पुस्तक के बाकी बचे पृष्ठों की संख्या पर नजर डालती हूँ। पुस्तक खत्म होने में सत्तर पन्ने अभी बाकी हैं।
पात्रों के बीच के अंतर्सम्बंधों को जितना मैं जान पायी वह ये कि नायक के लिए वह एक ‘विचार’ मात्र थी जिसे वह लोगों के सामने अभिव्यक्त करता रहता था, जबकि प्राइवेट सेक्रेटरी के लिए वह ‘भावना’ का विषय था, इसलिए वह उसके बारे में किसी से कुछ नहीं कहती, चुप रहती है। मैंने अब पुस्तक पढऩा बंद कर दिया है, क्योंकि मैं इस पुस्तक के अंत को नहीं पढऩा चाहती।
– कांता रॉय
भोपाल

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
