काव्य : नदियाँ – दीपक तिवारी “दीप” प्रतापगढ़

नदियाँ

नदियाँ, नदियाँ, नदियाँ
क्यों दम तोड़ रही हैं नदियाँ
खुद से खुद के लिए लडते-2
क्यों बनकर रह गयी है नालियाँ
नदियाँ, नदियाँ….
कल एक नदी मुझसे बोली
सुनो!
आदमी मे होती है महज खुदर्जियाँ
जिनका जीवन उपवन बनाया
वही मिटा रहे हैं मेरी हस्तियां
नदियां, नदियाँ…
ये बचा है जो पानी जैसा यहाँ
ये पानी नही है
ये आँसू हैं हमारे दुखों के
ये हुआ है रंग काला हमारा
ये प्रतीक है आदमी की नियत का
अब और न करो मनमानियाँ
नदियाँ, नदियाँ…
कल फिर सुनायी पडी
उन तीनों की सिसकियाँ
बुढियाँ, बच्चियाँ, नदियाँ
जैसे तीनों हो सहेलियाँ
नदियाँ, नदियाँ, नदियाँ…।।

दीपक तिवारी “दीप”
प्रतापगढ़, उ. प्र.

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