

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की जयंती पर
मैथिलीशरण गुप्त जी
राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को झाँसी के निकट चिरगाँव में हुआ था। उनकी जयंती 3 अगस्त को हर वर्ष ‘कवि दिवस’ के रूप में मनाई जाती है।
उनके पिता का नाम सेठ रामचरण कनकने तथा माँ का नाम काशी बाई था ।उनके बचपन का नाम ‘मिथिलाधिप नंदनशरण’ था लेकिन विद्यालय में नाम बदल कर ‘मैथिलीशरण’ कर दिया गया।धनाढ्य परिवार में जन्म लेने के कारण लाड प्यार में पलकर बड़े हुए मैथिलीशरण का मन खेलने कूदने में बहुत लगता था पढ़ाई लिखाई में ज्यादा होशियार नहीं थे लेकिन पिताजी ने घर पर एक पंडित जी को भी लगा दिया। वो चाहते थे बेटा डिप्टी कलेक्टर बनें लेकिन नियति ने रास्ता कुछ और ही तय कर दिया था। तीसरे दर्जे तक मदरसे में तालीम के बाद पिताजी ने झांसी के मैकडॉनल्ड हाई स्कूल में दाखिला करा दिया। झांसी में जब यह स्कूल बनाया गया था तब उसमें सेठ राम चरण कनकने ने सबसे ज्यादा तीन हजार रुपए दान दिए थे उस जमाने के तीन हजार माने आज के करीब एक करोड़ रुपए।
झांसी में भी मैथिलीशरण का मन पढ़ाई में नहीं लगा। दिन दिन भर चकरी चलाते और पतंग उड़ाने का तो जैसा जुनून था। जब भी कोई बारात या दूसरे गांव किसी जलसे में जाते तो पतंग उड़ाने वाले दोस्त भी ले जाते। दरअसल अंग्रेजी दर्जे की पढ़ाई से मैथिलीशरण चिढ़ने लगे थे।
मैथिलीशरण जब सिर्फ़ 28 साल के थे तभी उनके माता-पिता और दो पत्नियों का देहान्त हो गया था ।गम और अकेले पन की वजह से कारोबार में भी लाखों का घाटा हो गया । इस खालीपन को उन्होंने शब्दों से बांट लिया। उन्होंने कविता, दोहा, चौपाई, छप्पाय आदि लिखने शुरू कर दिए।
वह बचपन से ही अपनी रचनायें विभिन्न उपनामों से लिखते थे ।‘स्वर्णलता’ उपनाम से छप्पय लिखते थे, बाद में ‘रसिकेश’, ‘रसिकेंदु’ आदि से भी कई रचनाएँ लिखीं ।उन्होंने अनुवाद का कार्य ‘मधुप’ नाम से किया और ‘भारतीय’ और ‘नित्यानंद’ नाम से अँग्रेज़ सरकार के विरुद्ध कविताएँ लिखीं थीं ।
हिंदी साहित्य के इतिहास में वह खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। आरंभ में ब्रजभाषा में और संस्कृत छंदों में अनेक अन्योक्तियाँ लिखी। राष्ट्रीय चेतना, धार्मिक नैतिकता और मानवीय उत्थान उनके काव्य के अंश थे ।उनकी
रचनाओं में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य बोलता है। वह मानववादी, नैतिक और सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे। उनके दो महाकाव्य, बीस खंडकाव्य, सत्रह गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य, दो संस्मरणात्मक गद्य-कृतियाँ, चार निराख्यानक निबंध और अठारह अनूदित रचनाएँ उपलब्ध हैं। साहित्य जगत उन्हें ‘दद्दा’ पुकारता था। उनकी रचना ‘भारत-भारती’ 1912 के स्वतंत्रता संग्राम के समय व्यापक प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और इसी कारण महात्मा गाँधी ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की पदवी दी थी।
मैथिली शरण जी ने खड़ी बोली के स्वरूप के निर्धारण एवं विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी प्रारंभिक रचनाओं में इतिवृत्त कथन की अधिकता है। किंतु बाद की रचनाओं में लाक्षणिक वैचित्र्य एवं सुक्ष्म मनोभावों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रबंध के अंदर गीतिकाव्य का समावेश कर उन्हें उत्कृष्टता प्रदान की के चरित्रों में कहीं भी अलौकिकता नहीं है वरन उनका स्वरूप मानवीय है।उनकी सुप्रसिद्ध कृति साकेत के राम ईश्वर होते हुए भी तुलसी की भांति आराध्य नहीं, हमारे ही बीच के एक व्यक्ति हैं।
उन्हें ‘साकेत’ के लिए मंगला प्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया। राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया था। भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया।
उनके जीवन का एक रोचक प्रसंग है ।
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी झांसी रेलवे में काम करते थे और वही से सरस्वती पत्रिका का संपादन करते थे। सरस्वती इलाहाबाद से प्रकाशित होती थी और उस दौर की हिंदी में सबसे अच्छी पत्रिका थी। सरस्वती में छपना किसी भी लेखक के लिए सम्मान की बात थी। एक दिन मैथिलीशरण हिम्मत कर महावीर प्रसाद जी से मिलने गए। कौन जानता था की यह मुलाकात जिंदगी बदल देंगी। दोनों के बीच दिलचस्पी संवाद हुआ जो इस प्रकार था
मैथिलीशरण:- मेरा नाम मैथिलीशरण है मैं कविता लिखता हूं और मैं चाहता हूं कि मेरी कविता सरस्वती में प्रकाशित हो
द्विवेदी जी:- बहुत से लोग चाहते हैं कि उनकी रचनाएं सरस्वती में छपे। लेकिन सबको मौका नहीं मिलता… और फिर आप तो ब्रज भाषा में लिखते हैं। सरस्वती खड़ी बोली की पत्रिका है। मैं भला कैसे छाप सकता हूं?
मैथिलीशरण:- अगर आप मुझे आश्वासन दे तो मैं खड़ी बोली में भी कविता लिख सकता हूं
द्विवेदी जी:- ठीक है तो पहले आप हमें कोई कविता भेजिए तो सही। अगर छपने लायक होगी तो हम जरुर प्रकाशित करेंगे।
मैथिलीशरण:- मैं अपनी कविताएं रसिकेंद्र के नाम से भेजूंगा
द्विवेदी जी:- अब आप रसिकेंद्र बनने की इच्छा छोड़िए… वो जमाना चला गया।
उनके आदेश का पालन हुआ और रसिकेंद्र बन गए मैथिलीशरण गुप्त इसके बाद मैथिलीशरण गुप्त ने खड़ी बोली में हेमंत शीर्षक से कविता लिखी और सरस्वती में भेजी। द्विवेदी जी ने कुछ संशोधन करके उसे प्रकाशित किया ।बस इस के बाद ही वे गुरु शिष्य का अटूट बंधन में बंध गए ।
पंचवटी मैथिलीशरण गुप्त की वो रचना है जिसमें उन्होंने कुदरत के अनमोल खजाने को खोला है।
चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
इसी रचना में उन्होंने महिलाओं की वेदना की अमर अभिव्यक्ति की है। 85-90 साल बाद भी यह पंक्तियां प्रासंगिक है।
अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आंखों में है पानी
78 वर्ष की आयु में उनके गृह ग्राम चिरगांव झाँसी में 12 दिसंबर 1964 में हुआ । उनके निधन से साहित्य जगत में अपूरणीय क्षति हुई ।
एसे महान राष्ट्रकवि को शत शत नमन
–मधूलिका श्रीवास्तव
भोपाल

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
