काव्य : ठाकुर का कुँआ – अंजनीकुमार’सुधाकर’ बिलासपुर

ठाकुर का कुँआ

जल बिन जीवन व्यर्थ कल्पना।
जैसे बिन नीर के मीन तड़पना।।

तप रहा बुखार से जोखू भट्ठी में।
जल भर लाई थी गंगी डबरी से।।

जोखू चला भर लोटा पीने पानी।
सड़ाँध गंध मुंह आया उबकानी।।

जल सूंघ नाक सिकोड़ी थी गंगी।
गरीब की जीवन बिन पेवन नंगी।।

मरे पशु की कूड़ा गाह बनी डबरी।
कोई न गरीब की दुख की खबरी।।

ऊँचे जात कहाँ नीचों की बिसात?
पड़े छाया लंघन पर कोड़ा लात।।

ठाकुर के कुँआ पर ठाकुर बाम्हन।
साहू के कूँआ पर बनिया नाऊन।।

ढ़ोरन की बची एक गड़ही कोने में।
है कठिन उबाल छान पीने ढ़ोने में।।

साहू का कुँआ का दूसर टोला दूर।
ठाकुर का कुँआ निगरानी भरपूर।।

नजर चुरा लाना कुँआ का पानी।
दानव हाथ से अमृत छीन लानी।।

कुँआ के जगत खड़ी भद्र महिला।
बातें करें नारी शोषण की गहिरा।।

ताजा पानी पीने की मरद इच्छा।
नारी एक काम बचा मांगन भिक्षा।।

चारी सी खटते रहते नारी आठ पहर।
सुनते रहें बुढ़ियन पुरुषन बोल जहर।।

डाली गगरी गंगी छाती धड़काते ।
तभी खखार उठा ठाकुर दरवाजे।।

मेहनत का मूल्य फिसली नगदी।
छूटी रस्सी और जल भरी गगरी।।

कौन कौन? गंगी भागी थी मौन।
जोखू सड़ाँध पीने है विवश,मौन।।

समय चक्र ने सोंच बदला
पट गये गड्ढे ऊँच नीच के।
काबिज हुये हैं कुर्सियों पर
थे शोषित अपने बीच के।।

(मुंशी प्रेम चंद जी की कहानी *ठाकुर का कुँआ* का काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण)

अंजनीकुमार’सुधाकर’
बिलासपुर

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