लघुकथा : लाचारी – सावन कुमार सिटोके हरदा

लघुकथा

लाचारी

‘पिछले तीन दिन से कह रही हूं कि अगले हफ्ते भैया के बेटे की शादी है।बाजार चलना है।कम से कम बच्चों को ही कपड़े दिलवा दो।मगर आपके पास तो समय ही नहीं है।नौकरी न हुई मुसीबत हो गई।’- थाने में बैठे बैठे विशेष को पत्नी की बात याद आई तो लगा कि नौकरी करने से बेहतर तो मजदूरी करना है।कम से कम काम का समय निर्धारित तो होता है और परिवार को समय भी पर्याप्त दे पाते हैं।
जबसे ये चुनाव का मौसम आया है तब से न दिन मे चैन है और न रात को सुकून है।संवेदनशील क्षेत्र होने से हमेशा सतर्क रहना पड़ता है।लोग जरा-जरा सी बात पर खून करने से भी नहीं चूकते।
कई घर ऐसे हैं जहां कमाने वाले लोग दंगे की भेंट चढ़ गए थे और परिवार के सदस्य नैतिक, अनैतिक कामों से पेट पाल रहे हैं।कभी कभी उन अनाथ हो गए छोटे बच्चों पर दया भी आ जाती है,जिसके कारण स्वयं की आवश्यकता मे कटौती करके उनके लिए भी समाज सेवा करना पड़ता है। यही सोचते हुए जेब से पर्स निकाल लिया।

अभी पैसे गिने भी नहीं थे कि तभी वायरलेस पर कहीं दंगे भड़कने और दंगे मे एक मजदूर के मरने की खबर मिली,हाथ अचानक रूके और पर्स वापस जेब में चला गया।
शाम को होने वाली कलह की चिंता किए बिना पैर घटना स्थल की और चल पड़े ।

सावन कुमार सिटोके
हरदा

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