आद्य राजकीय नेता : लोकमान्य तिलक – लतिका जाधव, पुणे (महाराष्ट्र)

आद्य राजकीय नेता : लोकमान्य तिलक

(23जुलै/ 1856 – 1अगस्त 1920)

लोकमान्य तिलक स्वतंत्रता आंदोलन के आद्य नेता थे।उन्होंने पुणे में अपनी शिक्षा बी.ए. एल.एल.बी.तक पूर्ण की थी।विष्णुशास्त्री चिपलूणकर जी ने सरकारी नोकरी छोड़कर एक स्कूल खोलने का विचार किया था। तब लोकमान्य तिलक और गो.ग.आगरकर दोनों ने उनका साथ दिया। 1 जनवरी 1880 मे न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना पुणे में हो गई।वहां बिना वेतन लो.तिलक जी अध्यापन करते थे।
विष्णुशास्त्री चिपलूणकर, लो. तिलक,गोपाल गणेश आगरकर तीनों ने मिलकर 1881 में आर्यभूषण छापखाना शुरू किया। ‘केसरी’ और ‘मराठा’ दो समाचारपत्र शुरू किए। उस समय गो.ग.आगरकर केसरी ( मराठी) समाचारपत्र के संपादक थे। लो.तिलक मराठा (अंग्रेजी) समाचारपत्र के संपादक थे।समाचारपत्र के द्वारा समाज प्रबोधन तथा अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का कार्य उन्होंने इन समाचारपत्रों से शुरू हुआ।
शिक्षा के लिए भी उनका कार्य मौलिक रहा। 1884 में शिक्षाप्रेमी विद्वानों के साथ मिलकर पुणे में उन्होंने डेक्कन एजुकेशन सोसायटी की स्थापना की। इस संस्था के अंतर्गत 1885 में लो.तिलक और गो.ग.आगरकर जी ने फर्ग्युसन कालेज की स्थापना की।लो. तिलक इस कालेज में गणित और संस्कृत पढ़ाते थे।
लेकिन लो.तिलक प्रथम राजकीय स्वतंत्रता के पक्ष में थे,मतभेदों के कारण आगे चलकर वह डेक्कन एजुकेशन सोसायटी से अलग हो गए।लो.तिलक जी को राष्ट्र के साथ हिंदू धर्म का भी अभिमान था। वह अपने समाचारपत्रों से ब्रिटिश सरकार के अन्याय पर अग्रलेख लिखते रहे। कांग्रेस को जहाल राष्ट्रवादी बनाया।उनका ” स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और वह मैं लेकर ही रहूंगा” यह वाक्य आज भी स्वतंत्रता की चेतना को आग देनेवाला लगता है।
समाज में जागृति लाने के लिए उन्होंने ‘गणेशोत्सव’ और ‘शिवजयंती’ को सार्वजनिक स्वरूप दिया। जिससे राष्ट्रीय जागृति, स्वातंत्र्य की आकांक्षा को बल देना, महापुरुषों का स्मरण तथा धर्म और संस्कृति का ज्ञान विकसित करना जैसे मुद्दे उनको अपेक्षित थे।
लो.तिलक जी के प्रखर लेखन से ब्रिटिश सरकार ने उनपर राजद्रोह का आरोप लगाया और उन्हें सजा सुनाई गई।राजद्रोह की शिक्षा बारह महीने पूरी कर जब वह 1898 में वापस आये तो उनकी आम जनता मे लोकप्रियता बढ़ गई थी।जेल से वापसी के बाद भी वह अपने विचारों पर कायम थे।1908 मे फिर केसरी समाचारपत्र मे लिखे अग्रलेख ‘देश का दुर्दैव’ और ‘यह उपाय टिकना मुश्किल’ के कारण उनको दोषी मानकर छह साल की काले पानी की सज़ा और 1000 रुपये का जुर्माना ऐसा दंड दिया गया।।
इस सजा के लिए लो.तिलक जी को ब्रह्मदेश स्थित मंडाले के कारागृह भेजा गया था।इस कारावास के दौरान उन्होंने ‘गीतारहस्य’ ग्रंथ लिखा।1914 में लो.तिलक जी को कारावास से मुक्त कर दिया था।
1916 में लो.तिलक जी के प्रयासों से कांग्रेस- लीग करार हुआ। कांग्रेस- लीग के संयुक्त अधिवेशन में स्वराज की मांग का ठराव मंजूर किया गया।उस समय हिंदू- मुस्लिम एकता स्पष्ट रूप से देखी गई थी।
लोकमान्य तिलक जी राजकीय स्वतंत्रता के पक्ष में थे।उन्होंने राजकीय, सामाजिक तथा धार्मिक विचारों को बल देने के लिए अपने कृतित्व से समाज प्रबोधन किया था।
तत्कालीन समाज सुधारकों से उनका मतभेद इस मुद्दे पर था कि प्रथम राजकीय स्वतंत्रता लायेंगे फिर सामाजिक प्रबोधन हो सकता है।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका लेकर संघर्ष करनेवाले राजकीय नेता के रूप में इतिहास में उनका स्थान अद्वितीय है।
उन्होंने गीतारहस्य, ओरायन, आर्क्टिक होम इन द वेदाज और वेदांग ज्योतिष इ. ग्रंथ लिखे हैं।
लोकमान्य तिलक जी स्वतंत्रता आंदोलन का महत्व लेखन, व्याख्यान और कानूनन अपनी बात रखकर स्पष्ट करते थे। उनकी यह वैचारिक कृति आम जनता को स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देती रही। शिक्षा ही हमारे समाज के लिए नव संजीवनी है, इस बात को समझकर उन्होंने शिक्षा के लिए भी कार्य किया। स्वतंत्रता आंदोलन के दरमियान अपने विचारों पर अटल रहना, सरकारी नोकरी का त्याग , अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी भूमिका पर कायम रहने की उनकी दृढ़ता प्रेरणादायक थी।
लो.तिलक जी को सादर नमन!
जय भारत!

लतिका जाधव,
पुणे (महाराष्ट्र)

2 COMMENTS

  1. संपादक,
    श्री. देवेंद्र सोनी जी,

    लोकमान्य तिलक जी पर लिखे हुए मेरे आलेख को प्रकाशित करने के लिए आभार!
    जय भारत!

  2. बहुत सुंदर आलेख। बहुत महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है इससे। काफी जानकारी तो मुझे भी नहीं थी। बहुत बहुत धन्यवाद और बधाई।

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