काव्य : स्मृतियों में सदा जियूँगा – रामनारायण सोनी इंदौर

नवगीत

स्मृतियों में सदा जियूँगा

मृत्यु भले ही वरण करे मैं स्मृतियों में सदा जियूँगा।
तुझे जिया हूँ जीते जी मैं छोड़ सुधा क्या गरल पियूँगा?
मुझ में कितना दर्द घुला है
काँटों ने भी मुझे छला है
तप तप कर कितना पिघला मैं
तब साँचे में तेरे ढला मैं।।
तुझे भरम है भूल जायगा, फिर फिर तुझमें मैं
लौटूँगा।
मृत्यु भले ही वरण करे मैं स्मृतियों में सदा जियूँगा।।

क्या वे माटी के लमहे थे
जो पानी से बह निकले थे
क्या वे वचन निरे फिकरे थे
सौ सौ जो सौगंध भरे थे।।
उन्ही पलों की याद दिलाने, फिर फिर तुझमें मैं लौटूँगा।
मृत्यु भले ही वरण करे मैं स्मृतियों में सदा जियूँगा।।

वट की लटकी हुई जड़ों की
पींगें क्या तुम बिसर गई हो
बेंदी चौड़े भाल सजा कर
नव कलिका सी निखर गई हो।।
उन बिम्बों की सुधी कराने, फिर फिर तुझ में लौटूँगा।
मृत्यु भले ही वरण करे मैं स्मृतियों में सदा जियूँगा।।

चुपके चुपके उन तारों की
झिलमिल फिर फिर वही कहेगी
भाव भरे शब्दों की दिल में
रसधारा फिर वही बहेगी।।
उन शब्दों भावों में घुल कर, फिर फिर तुझ में लौटूँगा।
मृत्यु भले ही वरण करे मैं स्मृतियों में सदा जियूँगा।।

श्यामल कुन्तल की वेणी में
बूँदनियों की माल सजी थी
माटी पहली बारिश पी कर
तन मन में सौंधी महकी थी।।
याद दिलाने तुझे उसी की, फिर फिर तुझ में लौटूँगा।
मृत्यु भले ही वरण करे मैं स्मृतियों में सदा जियूँगा।।

रामनारायण सोनी
इंदौर

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