लघुकथा : गुरु गोविन्द – प्रदीप ध्रुवभोपाली भोपाल

लघुकथा

गुरु गोविन्द

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय। बलिहारी गुरु आप हैं, गोविन्द दियो बताय,कक्षा शिक्षक यानि गुरुजी से सुना करते थे,लेकिन बड़े होने पर,मन में आता कि आख़िर बलिहारी गुरु भला कैसे,यह प्रायोगिक तौर पर चरितार्थ हो तो,दिल से मानने में भी कठिनाई नहीं,और आख़िर ऐसा अवसर आया कि मुसीबत में फँस चुके शिष्य को गुरुजी बचाने पहुँच गये और शिष्य के लाख मना करने पर भी न माने और उसकी मदद करने पश्चात राहत की साँस ली।
उस दिन से पहले उसने सुन रखा था कि गुरु परमहितैषी ज्ञानदाता और मातापिता के समान होते हैं।
लेकिन उस दिन यह चरितार्थ होने में देर न लगी,जब गुरुजी का परिवार भी समस्याग्रस्त उन बच्चों की आवभगत में कोई कमी न रखी,तो लगा कि गुरु की महिमा ऐसे ही नहीं,बल्कि उसमें सच्चाई भी है,जो उस दिन सार्थक हुई कि गुरु केवल ज्ञानदाता भर नहीं,अपितु सच्चे गुरु शिष्य का पालन पोषण करने भी तत्पर हो कर उसका समग्र हित चाहते हैं,जो वंदनीय हैं।

प्रदीप ध्रुवभोपाली
भोपाल

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