लघुकथा : एक अकेला – सतीश राठी ,इंदौर

लघुकथा

एक अकेला

राघव की छेड़खानी दादा के साथ निरंतर चल रही होती है। कभी दादा से कुश्ती लड़ने लगता, कभी दादा को बाम की शीशी खोलकर बाम सुंघाने लगता, कभी दादा की पीठ पर सवार हो जाता। उसकी नई नई शरारतें दादा के साथ चलती रहती।

दादा कहते,” तू मुझे क्यों परेशान करता रहता है।”
“कहां करता हूं दादा! आपके साथ हंसी मजाक करना मुझे अच्छा लगता है।”
दादा भी सोचते , इकलौता पोता है चलो खेलने दो जैसे भी खेलता है। इसका भी तो मन घर में लगा रहता है।
ऐसे ही एक दिन दादा के पास ताश लेकर आया और बोला,” दादा मुझे ताश खेलना है आपके साथ।”
“बेटा मेरा मन नहीं है।”
“तो दादा! मेरे साथ कौन खेलेगा। मेरा तो कोई भाई भी नहीं है। मैं अकेला आप ही तो मेरे सब कुछ।”
दादा का मन भर आया। आज के इस एक संतान वाले युग में बच्चे संबंधों के लिए कैसे तरस रहे हैं। उन्होंने राघव को अपने पास बिठाया और उसके साथ ताश खेलने लगे।

सतीश राठी
आर 451 महालक्ष्मी नगर
इन्दौर 452010

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