लघुकथा : अब कोई समझौता नहीं – रंजना श्रीवास्तव,नागपुर

लघुकथा

अब कोई समझौता नहीं

केतकी लाख कोशिशों के बाद भी अब तक अपने पति राज को समझ नहीं पाई थी। वैसे तो राज अपने माँ पिताजी का काफी ध्यान रखते थे, पर केतकी की ओर सदा उदासीन रवैया रहता था उनका। ब्याह तो किया, पर परिवार में सन्तुलन बैठाना उन्हें कभी आया ही नहीं।
केतकी देखने सुनने में बहुत अच्छी, मिलनसार और गुणी थी। समय समय पर किसी संस्था में जाकर आर्थिक मदद करना, आस पड़ोस के गरीब बच्चों की पढ़ने लिखने में मदद करना यही उसकी दिनचर्या थी। पहचान वालों में सभी हर समय केतकी के गुणों की तारीफ किया करते थे और राज कहीं न कहीं अनदेखे रह जाते थे और हीनभावना में घिरते चले जाते थे। कभी कभी तो चिढ़ इतनी बढ़ जाती थी कि हाथ भी उठा देते थे, पर अपनी कुंठा के इलाज के लिए डॉक्टर की सलाह लेना भी उन्हें गवारा नहीं था।
केतकी के सास ससुर भी दोहरे चरित्र के थे। राज के घर पर न होने पर केतकी के साथ अलग व्यवहार और राज के आते ही अलग व्यवहार करने लगते थे जो केतकी को भीतर ही भीतर व्यथित करता था। राज उसकी किसी भी बात पर विश्वास नहीं करते थे और हमेशा उसे ही गलत ठहराया करते थे।
केतकी समय के साथ साथ और परिपक्व होती गई। वह सोचने लगी कि कोई पूरा जीवन घुटन भरी जिन्दगी कैसे जी सकता है? इतनी उम्र होने पर भी गम्भीरता क्यों नहीं आती? उसने मन ही मन एक कठोर निर्णय ले लिया कि अब वह राज और उसके माँ पिताजी को और तवज्जो नहीं देगी। अपने स्वाभिमान से अब और समझौता नहीं करेगी।
वह समझ चुकी थी कि कितने भी जतन कर लो, कुछ चीजें कभी नहीं बदलतीं। इसलिए उसे ही बदलना होगा। घर का वातावरण बदलने के लिए उसे ही कदम उठाने होंगे। आखिर बच्चों के चरित्र निर्माण का सवाल भी तो सामने खड़ा था।

रंजना श्रीवास्तव
शिक्षिका/कहानीकार
नागपुर, महाराष्ट्र

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