काव्य : जनक – अनिता रश्मि रांची

जनक

बच्चों के बाहर जाते ही
पीछे रह जाती है
छूटी हुई एक पूरी दुनिया
बेहद घरेलू सी माँ
प्रतीक्षारत,
बहन बाहर जाने को तैयार
खुद भी हायर स्टडी के लिए
पिता ढोते अकेले
अपने वृद्ध कंधों के साथ
कंधों पर
पुराने लोनी छोड़ते मकान
बिजली व घर के बिल
बाल्टियों में गंदले जल
या
नूतन टैरेस पर
फूलों के अघाए-सूखते गमले
माँ और खुद अपने दुखते
बिवाई फटे चारों पैरों को
घरों में बंद हैं
महीन सी एक पहली हँसी,
पैंया-पैंया चलते
पाँवों की निशानदेही,
प्रथम बार बोला गया
अद्भुत शब्द माँ ऽऽ!
फिर पापा…पापा!!

ढेर सारे खिलौने,
धुले-धुले नन्हें वस्त्र
चंद पुराने मोजे
पहने गए जूते,
अब पाँवों में आएँगे नहीं
फिर भी सहेजे जाते हैं
बचपन की यादों के संग
चले जा रहे वे बच्चे
अमेरिका, इंग्लैण्ड, कनाडा
अपने जेट पर सवार
पीछे मुन्नू-छुन्नू का
संबोधन त्याग
मेरा चाँद, मेरा सूरज की
अनमोल बोली
भूली-बिसरी बातें भूला
बढ़ते जा रहे हैं
आगे और आगे


बन जा रहे हैं बोनसाई से
हर मकान में आज
दो बूढ़े
अपने ही
घर में अकेले कैद!

अनिता रश्मि
रांची

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