काव्य : गोटियां – ललिता नारायणी , प्रयागराज

गोटियां

हम खेल में गोटियां चलते हैं
और गोटियां हमारी चाल बदल देतीं हैं ।
आशा के विपरीत जब यह
मुड़कर देखतीं हैं ,
तो , बाजियां पलट जाती हैं ।
हम कुछ पल के लिए
आवाक , मौन , ठगे से
खड़े के खड़े रह जाते हैं ,
कि अचानक ! यह गोटियां
हमें एक मौका देती हैं ।
फिर से खेलने का , सम्भलने का
हम इस बार पूरी शिद्दत से
अपनी चाल चलते हैं ।
और उसी पल !
खुशी से झूम उठते हैं ।
गोटी को मुट्ठी में कसकर
भींच लेते हैं ,
ओठों से लगा चूम लेते हैं ।
और तभी हम देखते है
पत्थर से तराशी गई
यह निर्जीव गोटियां ।
एक पल में ही
हमारी जीत का
एलान कर चुकी होती हैं

ललिता नारायणी
प्रयागराज

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