काव्य : चलो सच भी लिख दूँ – रजनीश “स्वच्छंद” दिल्ली

चलो सच भी लिख दूँ

लिखा झूठ तन के, हुई वाह वाही,
जला लाश तापा, न कोई गवाही।
कभी सच लिखा क्या, नहीं याद कुछ भी,
कलम तब चली है, हुई जब तबाही।।

सड़क मनचले कुछ, रहे छेड़ते वो,
हमारी नज़र थी, रहे मेढ़ते वो।
न बोला कभी कुछ, कि आज़ाद लब थे,
निडर हो डरा मैं, रहे पेरते वो।।

पढ़े श्लोक सारे, करी अर्चना भी,
पढ़ा, शेर होता, करी गर्जना भी।
मगर कागज़ी थे, घने शोर सारे,
गिरी आज मुँह बल, रचित सर्जना भी।

निभाकर सजाता, न दरवेश होता,
न ही शब्द ओछे, न ये भेष होता।
न साहित्य मरता, कथानक न झूठे,
कहीं और गोता, नया देश होता।

सजाता, रिझाता, रहा मैं भुनाता,
रहा झूठ ही मैं अनर्गल सुनाता।
अगर झूठ बिकता, न संकोच कोई,
वही गीत गाया, वही गुनगुनाता।

फटे वस्त्र सारे, नयन ताड़ते हैं,
ख़तम शो हुआ है, वसन झाड़ते हैं।
ग़रीबी गलाज़त, भरे आज पन्ने,
मज़ा आँख में भर, नमी गाड़ते हैं।

सड़क हो गली हो, भरे आज नारे,
न बेटी बची है, चमकते न तारे।
पले कोख विषधर, अँधेरा घना है,
न बैशाखनन्दन कभी पग निहारे।

लिखूँ आज कितना, कलम मनचली है,
न ममता न समता, वहम, अधजली है।
न बाज़ार दोगे, लिखेगी सहज हो,
नुमाया बिका है, नुमाया ढली है।

©रजनीश “स्वच्छंद”
दिल्ली

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