

भारतीय गणतंत्र में लोकसभा और विधान सभा चुनाव का क्या औचित्य ? -विद्यावास्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल
आगामी माहों में विधान सभाओं के चुनाव होंगे और वर्ष २०२४ में लोक सभा के चुनाव निर्धारित होंगे और उनकी तैयारियां शासन के साथ सभी पार्टियों के स्तर पर शुरू हो चूँकि हैं .इसमें सभी पार्टियां अपनी शक्तियां जी जान से लगाकर विजयी होना चाहती हैं ,यह लोकतंत्र का सूत्रपात हैं .
ईसा पूर्व हमारे देश में कई राज्य रहे जिनमे गुप्तकाल और मौर्यकाल .उसमे भी राजाओं के द्वारा मंत्री मंडल बनाकर बड़े बड़े निरयण उनके माध्यम से लिए .उस समय सत्ता का विकेन्द्रीयकरण होता था जिसमे मालगुजार आदि लोग नियत थे जो स्थानीय गतिविधियों की जानकारी रखते और नियंत्रित भी रखते थे.इसके बाद मुग़ल शासकों ने भी राजशाही के साथ सभी समुदाय से समन्वय रखकर ,मंत्री परिषद् के द्वारा राज्य का सञ्चालन किया.
ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश शासकों ने भी समय समय पर परिस्थियों के अनुसार काम किया और जनता को अधिकार बहुत बाद में दिए और देश स्वतंत्र हुआ .उस समय हमारे संविधान निर्माताओं ने अलिखित संविधान को लिखित में बनाया और उसमे पूरे नियम कानून ब्रिटिश शासन के अनुरूप बनाये जो आज भी लागु हैं !
स्वतंत्रता के बाद शासकों ने आजादी की बलिहारी से चुनाव जीते और तंत्र चलाया .१९७५ में आपातकाल के बाद भी कई पार्टियों की सरकार बनी बिगड़ी. जनता पार्टी टूटकर भारतीय जनता पार्टी ,जनता दल आदि .इसके बाद इंदिरा गाँधी काण्ड के बाद राजीव सरकार का गठन हुआ .फिर कांग्रेस में बिखराव ,वी पी सिंह फिर नरसिंहम राव फिर देवगौड़ा गुजराल ,बाजपेयी ,मनमोहन सिंह के बाद भारतीय जनता पार्टी को प्रांतों में और केंद्र में बहुमत मिला ,न केवल बहुमत मिला ,पर्याप्त मिला और विपक्ष न के बराबर उसके बाद भी विगत चार पांच सालों में किसी भी सत्र में कोई भी कार्यवाही समुचित ढंगसे नहीं हो पा रही हैं ऐसा क्यों ?
सत्ता पार्टी के द्वारा इतने अधिक घोटाले या अनियमिताये हुई हैं की वे विपक्ष का सामना करने में असमर्थ हैं या हो चुके.ऐसा कोई भी राज्य नहीं हैं जहाँ बहुत सुगमता से विधान सभा का सञ्चालन हुआ हो .या तो शीघ्र समय से पूर्व गर्भपात हो जाता या मुकाबला या सामना करने का सामर्थ सत्ता पार्टी को नहीं होता और केंद्र सरकार की लोक सभा और राज्य सभा बिना औचित्य के समाप्त हो जाती हैं .तर्क बहुत होते हैं और अंतहीन होते हैं ,विवाद पैदा करना दोनों पक्षों का काम हैं .सब सरकार प्रचुर बहुमत में हैं तो उसे निडरता से सामना करना चाहिए ,सरकार के पास सत्ता और मंत्रियों की फौज होती हैं और विपक्ष जनता के हित में अपनी बात रखना चाहती हैं और सरकार लोक कल्याण के लिए हैं और सदस्य सदाशय से नहीं बैठ सकते .इस दौरान कितना समय .धन ,श्रम का अपव्यय होता हैं इसका कष्ट की अनुभूति यदि सदस्यों को नहीं हैं तो ऐसे सदन की क्या आवश्यकता हैं इस देश में .चुन कर गए प्रतिनिधि अयोग्यता प्रदर्शित करते हैं ,नालायकी बताते हैं और कोई कोई तो लोकप्रियता के लिए कुछ भी अनर्गल क्रियायें करते हैं जिससे वे स्वयं पार्टी ,सदन और देश शर्मिंदगी महसूस करते हैं .इससे संविधान की खुली धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं .
वर्तमान में जितने भी असामाजिक और धनवान चुने प्रतिनिधियों को कोई भी भय नहीं हैं .भय का अभाव हो जाने से वे निर्भय होते हैं .आर्थिक समस्या का कोई प्रश्न नहीं बस रहता हैं अस्तित्व का तो उसके लिए वे पद चाहते हैं इससे देश को क्या लाभ हैं ?.विगत दिनों मध्य प्रदेश विधान सभा सत्र का गर्भपात हो गया और विपक्ष सदन के बाहर अपनी कार्यवाही कर रहे हैं ! ये क्या हैं ?सत्ता पक्ष के पास प्रचंड बहुमत के बाद पलायन करना या विपक्ष के द्वारा मनमानापन से ये कार्यवाही इस प्रकार किया जाने से यह विषय सोच का हैं की इस देश में संविधान के अनुसार चुनाव होना चाहिए पर संविधान के अनुरूप चलना नहीं चाहिए ! यह कैसी दोगली मानसिकता हैं .
अब समय इस विषय पर सोचनीय हैं की जब चुने हुए प्रतिनिधियों का सदन में कोई भूमिका नहीं हैं और न उसमे सक्रीय भागीदारी निभाते हैं तब फिर उनका चुनाव क्यों होना चाहिए .इसका विकल्प यह हो सकता हैं की एक राष्ट्रीय पार्टी का निर्माण कर बिना सदन की कार्यवाही के देश का सञ्चालन हो .जब रहते हुए कुछ नहीं करते तो क्यों चुने जाए.या इस बार सांसदों और विधायकों के क्रियाकलापों का चलचित्रों के माधयम से उनके चुनाव क्षेत्र में प्रदर्शन टी.वी के माध्यम से दिखाया जावे की हमारे द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की कैसी कैसी कारगुजारियां रही .इसलिए इनको भगाओ और नए प्रतिनिधियों को चुनों .क्योकि इन निकम्मों को वेतन भत्ता ,सुख सुविधाएँ देने के बाद जनता का कितना काम करते हैं .मात्र अपना पेट भरना ,कोठी बनाना,बैंक बैलेंस बढ़ाना .
चुनाव का खर्च अंतहीन ,अकथनीय और अकल्पनीय होता हैं .इनको इसीलिए दर्द नहीं होता हैं क्योकि जो धन खर्च करते हैं वह बिना श्रम का होता हैं .दो नंबर का भर्ष्टाचार का होता हैं तो बिना पीड़ा के खरच करते हैं और जीतते हैं या हारते हैं ,जनता .सरकार का पैसा खरच होता हैं जो निष्फल जाता हैं और चुनाव के दौरान हिंसाजन्य वातावरण बनता हैं और हत्याएं ,मौते ,दंगे ,दुश्मनी बढ़ती हैं ..और उसके बाद मर्यादाविहीन क्रियाकलाप देखना .बहुत देख लिया हैं अब कुछ समय बिना निर्वाचित सरकार बने या फिर मिलिट्री शासन से ही सुधार होने की गुंजाईश हैं वह भी धूमिल.देश बहुत बड़ा होने से क्रांति होना मुश्किल .मूर्खों से ही क्रांति आती हैं .
अन्यायों हि पराभूतिर्न तत्यागो महीयसः! यानि अन्याय करना ही महापुरुषों का पराभव हैं ,अन्याय का त्याग नहीं.
तुनाग्रबिंदुवद्रअजयं .राज्य तिनके के अग्रभाग पर स्थित जलबिंदु के समान हैं.
इसीलिए चनाव की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कोई आवश्यकता नहीं होना चाहिए या फिर संविधान के अनुरूप कार्यकलापों में भाग ले अन्यथा राष्ट्रीय सरकार का गठन हो .
– विद्यावास्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन
संस्थापक शाकाहार परिषद्संरक्षक शाकाहार परिषद्
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देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
