काव्य : ग़ज़ल – हमीद कानपुरी,कानपुर

ग़ज़ल

अपने विरसे की अमानत जो सँभाली होती।
ज़ेब उसकी कभी ता उम्र न खाली होती।

बेल नफ़रत की सियासी जो न डाली होती।
ईद मनती यहाँ हर रोज़ दिवाली होती।

बीच आँगन कभी दीवार न उठती हरगिज़,
राह जो बीच की मिल बैठ निकाली होती।

हार होती न किसी तौर कभी हरगिज़ फिर,
खूब अच्छे से जो रणनीति बना ली होती।

लोक हित के लिए संसद में जो चर्चा करते,
आम जनता नहीं इस दौर सवाली होती।

हमीद कानपुरी,
(अब्दुल हमीद इदरीसी)
कानपुर

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