लघुकथा : क्षमापना – आर एस माथुर इंदौर

लघुकथा

क्षमापना

“आप तो जैन धर्म के अनुयाई हैं ,,,जो सबसे उन्नत है, विकसित है, मानवता वादी है !”मेरे परिचित मित्र सवेरे ही दिख गए।
“अरे ,अरे बस कीजिए! आप इतना जानते हैं ,यही बहुत है!
” आज क्षमा याचना पर्व है न? शायद हर साल पर्यूषण के आस पास होता है!”उन्होंने मेरे पास आकर अपनी धार्मिक जानकारी मुझसे साझा की।

“अच्छा ज्ञान है आपको ,,किंतु एक मूलभूत अंतर रह गया।आज क्षमायाचना नहीं क्षमापना पर्व है।”मैने उनको ठीक किया।
“क्या दोनों में कुछ अंतर है?”प्रश्न उठा।
“हां मूल अंतर यह है कि जहां क्षमा याचना में कोई अपनी भूल या अपराध का अनुभव कर, माफी चाहता है,,यहां बिना उसकी भूल या अपराध का संज्ञान हुए या क्षमा मांगे ही उसे दान दी जाती है क्षमा।”
“ये क्या बात हुई,,उसे दंड तो दूर उसकी लज्जा का भी भास नहीं हुआ और,,,
बात अधूरी इस लिए भी रह गई कि वह मुझे कष्ट पहुंचाने से आशंकित थे।

“देखिए इस पर्व के पीछे का दर्शन दूसरे के मन से पूर्व अपने को अहंकार,कष्ट या दण्ड से मुक्त करना है। लक्ष्य तो हमारा है न शांत जीवन का,,न कि किसी ताड़ना योग्य कृत्य पर किसी को आभास कराने या स्वयं को उसकी नजरों में उठाने का।”

“आज का दिन तो धन्य हो गया।”
“मुझे भी आप क्षमा प्रदान करें,,अनजाने में भी यदि मेरे किसी मन वाणी या कर्म से आपको कष्ट हुआ हो तो!”

“अरे!कैसी बात करते हैं!” उन्होंने कहा और मुझसे लिपट गए।

आर एस माथुर
इंदौर

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