

ग़ज़ल
कई नाकाम चेहरे हैं,मुहब्बत में मगर ज़िन्दा
न मरते हैं न जीते हैं,वो फिरते दरबदर ज़िन्दा
मुहब्बत में हुए नाकाम,तो नासूर दिल में अब
लिये वो दर्द घुट के जी रहे हैं उम्र भर ज़िन्दा
न कहते हैं किसी से वो,नहीं वो दर्द सह सकते
मुहब्बत के सताये आज भी हैं कुछ बशर ज़िन्दा
किसी से बद्दुआएँ ही मिलीं होंगी तभी आखिर
मुहब्बत में हुआ नाकाम सहता है क़हर ज़िन्दा
मुहब्बत गर मिले ज़न्नत,हुए नाकाम तो दोज़ख
कई नाकाम हंसते दिन में,रोते रातभर ज़िन्दा
न पूंछो हाल उनका जो,दबाये ज़ख्म सीने में
यहाँ बैठे दबाकर दर्द,रहते शब सहर ज़िन्दा
कई ऐसे,नहीं ग़ुलज़ार होती ज़ीस्त भी जिनकी
करें कोशिश,मगर बैठे हुए अब हारकर ज़िन्दा
– प्रदीपमणि तिवारी/ध्रुव भोपाली
भोपाल

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
