काव्य : खामोश रात – सरस्वती, पटना

खामोश रात

ख़ामोश रात जब मैं अकेली होती हूं,
रात में जब सन्नाटों की सहेली होती हूं।
आइने में अपने अक्स को देखतीं हूं,
फिर थोड़ा तोड़ती हूं थोड़ा जोड़ती हूं,
पता नहीं क्या -क्या मैं छोड़ती हूं।

रातों का सन्नाटा जैसे कुछ कहता है मुझसे,
तूं तो एसी न थी क्यों बिछड़ गयी खुदसे,
चहचहाने वाली लड़की को सन्नाटा क्यों भाता है,
ख़ुद से तो पूछ क्या इसका जबाब तुझे आता है।

हर वो पल,हर वो छन याद आता है,
जहां से शुरू किया था और अंत याद आता है,
बिखर -बिखर कर सम्हलना और
संभल कर बिखरना, लड़खड़ाना और उठ कर चलना,
ख़ामोश रात में हर वो पल याद आता है,
हाथों से जो फिसल गया वो कल याद आता है।

ख़ामोश रात में जब जब मैं अकेली होती हूं,
रात में जब सन्नाटों की सहेली होती हूं।

ख़ुद से रूबरू होकर जब खुद से बातें करती हूं,
ख़ुद से ही रूठ कर खुद से ही शिकायत करती हूं,
ख़ुद में ही उलझ कर जब एक पहेली होती हूं,
ख़ामोश रात में जब मैं अकेली होती हूं,
रात में तब सन्नाटों की सहेली होती हूं।

सरस्वती
पटना

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