लघुकथा : पसमांदा – आर एस माथुर इंदौर

लघुकथा

पसमांदा

“तुम भी पसमांदा हो क्या ?” मैंने एक स्कूटर मेकेनिक से पूछ लिया।
“कह सकते हैं ! वैसे तो सभी पसमांदा हैं हमारी बिरादरी में ,,,कौन बढ़ पाया मदरसों की दीनी तालीम पाकर! आज के जमाने से कटी हुई पढ़ाई ने हमें , न तो रोजगार के लायक बनाया ना अदीब ही होने दिया । बस एक सियासत चल रही है ! सभी हमारा भला चाहते हैं ऐसा दावा है!”

“तो कुछ तो हुआ भी होगा ?”मैंने जैसे उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया।

“यही तो रोना है ,,हम वहीं पड़े हैं , जहां सौ सालों से पड़े थे । ठीक वैसे ही जैसे दलित हैं ,हिंदुओं में । आरक्षण जारी है लेकिन हालत नहीं सुधरती !”

“तो फिर वह लोग कौन हैं जो पिछड़े नहीं है ,,कुछ तो अगड़े लोग भी होंगे ? सवाल सीधे टकराया।

“हां उनको अशरफ कहते हैं ,,,जैसे कुलीन ब्राह्मण लेकिन हालत तो जनता की एक जैसी है ! जातियों से क्या होता है ?”
“कुछ करते क्यों नहीं ?”
“क्या किया जा सकता है ,,चुनाव में हर कोई,, न तो खड़ा हो सकता है और फिर ,,,जीतना तो और भी दूर की बात है!”
स्कूटर ठीक हो चुका था।

आर एस माथुर
इंदौर

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