

समीक्षा :
समाज के अंधेरे पक्ष पर रोशनी डालता है डॉ स्नेहलता पाठक का कहानी संग्रह “दीपशिखा”
समीक्षित कृति
दीपशिखा ( कहानी संग्रह )
लेखिका : डॉ. स्नेहलता पाठक
किसी भी साहित्यिक विधा का कोई ना कोई आधार या केंद्र अवश्य होता है। इसी केंद्र के आगे घटनाओं और उनके प्रभाव के साथ साहित्यकार का चिंतन- मनन और परिकल्पनाएं जुड़ती चली जाती हैं ,जो अपने विभिन्न पात्रों का आधार लेकर किसी कहानी, नाटक ,उपन्यास आदि विविध रूपों का सृजन करती हैं। सच पूछो तो मनुष्य की आत्मा की निष्पक्षता ही साहित्य का औदात्य है। एक निष्पक्ष मानवतावादी लेखन का अभिप्राय “लोकमंगल की कामना” ही है। यही निष्पक्ष लेखन व्यक्ति और समाज के अंधेरे पक्ष पर रोशनी डालकर उसके ख़तरों से हमें सचेत भी करता है। उसका यथार्थ सत्य को उजागर करता हुआ असत्य और अमंगल का पर्दाफाश करता है। यही साहित्यकार का मुख्य लक्ष्य भी होता है |
डॉ. स्नेहलता पाठक की कलम पूरी क्षमता और संकल्प के साथ यही कर रही है। साहित्य के कलेवर का तात्कालिक और सामयिक महत्व भी अवश्य होता ही है अन्यथा वह अपनी समकालीनता और समसामयिकता के प्रमुख गुण से वंचित भी रह जाता है। तात्कालिकता ही साहित्य को जीवंत और मर्मस्पर्शी बनाए रखती है, तभी तो साहित्यिक संरचना और उसका प्रभाव उतना ही सार्वकालिक होता है |
आजकल अनेक साहित्यिक पुस्तकों में कई बार अनुक्रम या विषय सूची नहीं होती पर इस पुस्तक में यह उपलब्ध है। इसमें 11 कहानियां संकलित हैं। कथानकों में भी विविधता के साथ ही भारतीय समाज में नारी सम्मान की वास्तविकता नजर आती है। ये कहानियां लेखिका की सूक्ष्म-दृष्टि और गहन संवेदनशीलता का परिचय देती हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे लेखिका ने हर पात्र के हृदय में, मन- मस्तिष्क में पहुंचकर उसके सुख-दुख, उसकी पीड़ा और वेदना को उसकी वास्तविक गहराई में समाविष्ट होकर अनुभव किया है। उसे इतने संक्षेप में, सामान्य शब्दों में उकेरना, लोक व्यवहार के शब्दों का उपयोग करके, उसे और भी अधिक स्पष्टता प्रदान करना, ये सारी विशेषताएं लेखिका की लेखनी में हैं जो उनके लेखन को पारदर्शी एवं प्रभावशाली बनाती हैं। इन्हीं गुणों के कारण आपका साहित्य पठनीयता के गुण से प्रदीप्त है जो पाठक को आकर्षित करता है। ऐसी रचनाओं और पुस्तकों का सकारात्मक प्रभाव निश्चित ही समाज और व्यक्ति पर पड़ता है।
कुछ कहानियां जाति – धर्म के भेदभाव से ऊपर उठकर प्रेम-विवाह का समर्थन करती हुई आगे बढ़ती हैं। कई पात्र बेहद ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और आदर्शवादी भी हैं | कुछ कहानियां विभिन्न परेशानियों का यथार्थ चित्रण है। कुछ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को प्रतिबिंबित भी करती हैं। विभिन्न कहानियों में अलग-अलग रसों का आनंद भी है। जीवन की कठोर वास्तविकता के साथ अनेक मधुर स्वप्न भी हैं, अंतर्मन का क्रंदन भी है। कुछ में मनुष्य की आस्था, विश्वास, समर्पण और सरलता का परिवर्तित रूप या प्रवर्तन भी देख सकते हैं। एक अनाथ बालिका की मार्मिक कहानी में – अभावग्रस्त जीवन जीने के साथ ही लगातार मिलती प्रताड़ना को पाठक अनुभव करता है। बालिका जो अपमान और उपेक्षा सबकुछ सहते हुए भी फूट-फूटकर रो नहीं सकती। अपना पक्ष ,अपनी बात खुलकर कह नहीं सकती। एक दिन अपने आत्मविश्वास के बल पर ही लगातार खंडित हो रहे स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा कर लेती है। इस परिवर्तन के बाद वह सुखमय जीवन व्यतीत करती है। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए महिला को कितना संघर्ष करना पड़ता है, पाठक को जैसे इसका प्रत्यक्षीकरण होता है। ये कहानियां संवेदनाओं के यथार्थ को जैसे पल भर में जीवंत कर देती हैं।
एक सेवानिवृत्त व्यक्ति अपने परिवार से जीवन भर की सेवाओं और प्यार के बदले केवल प्यार ही चाहता है, किंतु पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित युवा बच्चे अपने पिता को नहीं उसके पैसों को प्यार करते हैं। वे पिता के ‘पेंशनर’ होने को बैठे-बैठे खाने की संज्ञा देते हैं। यह बहुत ही मार्मिक कहानी है, जो आध्यात्म और धर्म की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है।
कई कहानियां भावनाओं के सरस प्रवाह को तोड़े बगैर ही बहुत सहज ढंग से आगे बढ़ती हैं। स्त्रियों के शोषण और दमन के कारण उनका लेखन उद्वेलित होता है। सामाजिक- धार्मिक अंधविश्वास के कारण स्त्रियों की होने वाली दुर्दशा, उन्हें विचलित करती है। पारिवारिक संबंधों में मजबूती और प्यार की पक्षधर हैं लेखिका। सहेलियों के बीच भी ईर्ष्या और स्वार्थ पैदा हो सकता है यदि उनके व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन को क्षति पहुंचने की तनिक भी आशंका हो तो। स्त्री – विमर्श पर अनेक दृष्टिकोण से यह एक प्रभावशाली और सफल कृति है। सबसे पहली कहानी ‘मुक्ति मार्ग’ एक बहुत ही मार्मिक कहानी है। पाश्चात्य संस्कृति और भौतिकता में डूबे हुए आधुनिक बेटे – बेटियों की सच्चाई बयां करती है। सेवानिवृत्त होने के बाद ,जवान बच्चों की संवेदना पिता के प्रति शेष नहीं रहती बल्कि उसके पेंशन के प्रति सजग रहती है। पिता संतान के प्रेम में दर-बदर भटकता है और बच्चों की तीखी नज़र पिता के पेंशन और खर्च पर होती है। विदेश में रहती हुई बेटी और दिल्ली में रहने वाला बेटा दोनों ही अपने पिता को उनके ही घर में एकांकी जीवन जीने की समझाइश देते हुए कहते हैं — “आप तो बैठे- बैठे पेंशन पा रहे हैं और हम लोग दिन भर काम करते हैं। सब कुछ हमें सौंप कर आप आराम से क्यों नहीं रहते ? ” इस बेहद दर्दनाक और युगीन सत्य पर लेखिका की चिंता उनकी मानवीय- सामाजिक संचेतना का परिचय देती है।
मनुष्यता और संवेदनशीलता से दूर होकर वर्तमान युवा कर्तव्य, धर्म- निष्ठा और मानवता को भी भुलाकर केवल और केवल अपने लिए ही जीता है। कलयुग में ‘अर्थ और काम ‘ ही सब कुछ है। यही इस युग में रिश्ते का आधार भी है। यही साधन है और यही साध्य भी है। इस मर्मस्पर्शी कहानी के लिए लेखिका को साधुवाद। दूसरी कहानी ‘अंतर्द्वंद’ भी इसी तरह की कहानी है। इसमें भी अर्थ केंद्रित समाज में सारे रीति- रिवाज खोखले होकर रह गए हैं, इसी बात की पुष्टि होती है। लेखिका के शब्दों – “ममता, तिरस्कार की जिस अग्नि में आज तुम जल रही हो, कभी पार्वती को भी इसमें जलकर भस्म होना पड़ा था। मायके में बेटी के तिरस्कार की यह मर्मांतक कथा है। यह कहानी बेटी- बेटा के अधिकारों की समानता पर भी ध्यान आकर्षित करती है। ब्याह के बाद बिटिया को पराएपन का एहसास क्यों कराया जाता है? बेटे का ही एकाधिकार क्यों होता है माता-पिता या पूर्वजों की संपत्ति पर? तीसरी कहानी भारतीय संस्कृति पर आधुनिक सभ्यता के विषैले दंश की कहानी है। शादी के बाद भी नायिका ‘कृति’ को उसका पुरुष मित्र ‘रमा’ बार-बार बताता है और दांपत्य के पवित्र संबंध को कलंकित करने का प्रयास करता है। उसके ‘पातिव्रत- धर्म’ को व्यर्थ बताता है। नायिका आंशिक रूप में प्रभावित भी होती है किंतु पति के निश्चल प्रेम और विश्वास के सामने उसे अपनी भयानक भूल का एहसास हो जाता है। ‘यादें’ कहानी पवित्र प्रेम की कहानी है जहां स्त्री- पुरुष के बीच चारित्रिक संतुलन दिखाई देता है। ‘दीपशिखा’ इस पुस्तक की शीर्ष- कथा है। उम्र के एक पड़ाव पर प्रेम के क्षणिक आवेग में बहकर युवा वर्ग पारिवारिक प्रेम और सुख- शांति की उपेक्षा करके, झूठे स्वप्न देखने लगता है | सांस्कृतिक- पारिवारिक प्रतिष्ठा में आग लगाकर क्षणिक आवेग में गलत कदम ना उठाएं इसकी सीख इस कहानी में मिलती है। यह एक आदर्श प्रस्तुति है। ‘वह अब नहीं रुकेगी ‘ आत्मकथात्मक शैली में लिखी गयी है। पीठ- दर्द से पीड़ित नायिका को डॉक्टर ने कहा – “आप झुकना कतई बंद कर दीजिए। आप की रीढ़ की हड्डी में गैप आ गया है। ध्यान नहीं देंगी तो टूट भी सकती है। आप सीधे तनकर चलने की आदत डालिए।” नायिका यह कथन जिंदगी में पहली बार सुन रही थी कि औरत भी सीधे खड़े होने का अधिकार रखती है। यह कहानी भारतीय समाज में युगों से नारी के सम्मान और अधिकार को कुचलने की परंपरा पर करारा व्यंग्य है । नारी सम्मान पर लगाया गया प्रश्नचिन्ह आज भी लगभग यथावत है। जब तक स्त्री ही स्त्री का सम्मान करना नहीं सीखेगी समाज का दृष्टिकोण नहीं बदल सकता। आज भी हम बच्चियों के लिए भयभीत हैं, बेटी के गर्भ में आने से लेकर उसके ससुराल जाने के बाद भी यह चिंता लगातार बनी रहती है। इस कहानी के लिए भी लेखिका को बहुत-बहुत बधाई ‘अभिशप्ता ‘ स्त्री- त्रासदी की बेबाक बयानी है। बेटी पैदा हो तो मुश्किल। रजस्वला ना हो तो मुश्किल, हो तो 4 दिनों तक उससे परहेज रखें। गर्भधारण न करें तो मुश्किल और यदि गर्भधारण करें और फिर बेटा पैदा ना हुआ तो भी स्त्री ही दोषी है। ससुराल में मुसीबत आए तो भी बहू का ही दोष माना जाता है। इस प्रकार भारतीय समाज में आज भी हर तरह से ‘स्त्री- त्रासदी’ का परिवेश आंशिक रूप से बना हुआ है |
‘संबंधों की यात्रा’ भी एक स्तब्ध कर देने वाली कहानी है। मुंह – बोले संबंध कई बार कितने मजबूत होते हैं और किस तरह से रक्त संबंधों से बेहतर होते हैं इसको प्रमाणित करती हुई कहानी है। ‘सुनहरी भोर’ में मां की मृत्यु का दोष अबोध बच्ची पर मढ़ दिया जाता है। कहानी का अंत सकारात्मक है, जहां पिता ने बच्ची को प्रेम विवाह की अनुमति दे दी। ‘कैक्टस’ छोटी बहन के गुणों की प्रशंसक बड़ी बहन की कहानी है। बड़ी बहन को शंका है कि छोटी बहन कहीं उसके पति और परिवार को उससे अधिक आकृष्ट कर सकती है। उसकी जगह छोटी बहन ले सकती है। इसी वजह से बड़ी बहन ने छोटी बहन को तेज बारिश वाली रात में भी अर्धरात्रि को ही अपने घर से विदा कर दिया। पुस्तक के अंत में ‘हकले चाचा का ब्याह ‘ हल्के – फुल्के हास्य- विनोद से भरपूर कहानी है जो पाठक को हंसाकर ही रहती है। इसे पढ़कर हंसता हुआ पुस्तक बंद करता है, यह भी आनंदित करने वाली बात है।
समीक्षक:
– डॉ. मृणालिका ओझा
कुशालपुर
रायपुर ( छत्तीसगढ़ )
492001

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
