काव्य : मां होती है – गिरीश चन्द्र ओझा इन्द्र,आजमगढ़

मां होती है
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इस जगती मे कैसी कैसी,
मां होती है?
सुत के ऊपर छाया जैसी,
मां होती है।।
*
बना आवरण ममता के अन गिन तारों से!
पुत्र _उरस में माया जैसी ,
मां होती है ।।
*
संकट _ काल हुआ जब भी !
बालक के ऊपर!
सुमन _ सुगन्धित छाया जैसी,
मां होती है।।
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महाकाल का जब भी चला,
थपेड़ा , सुन लो!
सुदृढ़ नीव के पाया जैसी ,
मां होती है।।
*
एक प्याज के छिलके जैसी ,
हो जाती है।
परत दर परत काया जैसी,
मां होती है।।
*
अपना जाया ! अगर नही!
कुछ नेकी माने !
उसके संग परछाया जैसी,
मां होती है।।
*
देती है आनन्द पुत्र को,
कष्ट भोगकर!
कभी नहीं पछताया ! जैसी,
मां होती है।।
*
दिन _ दिन भूखों रह जाती,
कुछ नहीं बोलती!
हरती पीर पराया , जैसी,
मां होती है।।
*
माता तो बस माता है,
कुछ और न जानो!
निज मे स्वर्ग समाया जैसी!
मां होती है।।

गिरीश चन्द्र ओझा इन्द्र,
श्री दुर्गा शक्ति पीठ,अजुबा,
आजमगढ़, ऊ ०प्र ०_276127,

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