कहानी : नींव – यशोधरा भटनागर , देवास

कहानी

नींव

सरो के पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे । कभी वह गुनगुनाती, मुस्काती और अपने आप ही हँस पड़ती ।जब से बेटे का फोन आया है सरो सातवें आसमान पर है । उसी दिन से बेटे के स्वागत सत्कार की तैयारियों में लग गई हैं। बरसों से मुरझाया घर खिल उठा है। धुले-प्रेस किए पर्दे खिड़कियों पर इतरा रहे हैं। घर का कोना-कोना दमक रहा है । आंगन में सद्य: स्नातः मिट्टी के दो डोलची और तबलची अपना संगीत छेड़े हुए हैं,लता वल्लरियाँ झूम रही हैं ।पुष्प भी खिल-खिल उठे हैं।दीवारों पर सरो के हाथ से बने मांडने भी सजीव हो बतिया रहे हैं।
कितना काम है! और यह रधिया भी अलाल हो गई है। कितना धीरे-धीरे काम करती है। तनु के आने में बस दो दिन बचे हैं।महीने भर से लगी हैं तब जाकर।
अभी भी कितने काम बाकी हैं ।बाजार से सब्जी लानी है,लाड़ले की पसंद का गाजर का हलवा बनाना है, दही बड़े की तैयारी तो परसों ही कर लूंगी उड़द की दाल की कचौरियाँ,इमली की सोंठ , बथुए का रायता बेटू के पसंदीदा सारी डिशेज़ मेन्यू में अपने आप जगह पा गईं। बरसों हो गए पिछली बार तनु के आने पर ही बनाए थे।
तनु का पेट भर जाता पर मन नहीं भरता ,तब सरो ही कहती बेटा! बस थाली को हाथ जोड़ लो ,पेट खराब हो जाएगा ।
माँ !आलू -टमाटर की सब्जी क्या बनाई है ! और कचौरियाँ तो आपके हाथों में तो जादू है जादू और सरो फूल कर कुप्पा हो जाती।
समय के साथ- साथ उनके ही दिए पंखोंं से ही बच्चों ने ऊंँची उड़ान भरी और वे।
सरो और सुबोध अकेलेपन से घिर गए ।दोनों अतीत से गुजरते वर्तमान में जीते।
वे झूठ क्यों बोलें एक दिन भी ऐसा न जाता जब तनु उन्हें कॉल ना करता हो !
ढेरों बातें होतींकभी वीडियो चैट ,कभी कॉल।बेटा-बहू दोनों ही प्यार भरी बातों से खालीपन भर देते पर मन न भरता ।
जीवन के इस पड़ाव पर यह तो सब के साथ होता है।वे स्वयं को समझाती और खुद को व्यस्त रखने की कोशिश करतीं। पर व्यस्तता में भी मन का रीता पन न भरता।
पूरी रात आँखों में ही कट गई । सुबह चार बजे की फ्लाइट है उन्होंने पौने चार का अलार्म लगा लिया हालांकि इसकी जरूरत ही क्या थी ? बस कुछ बुनते -गुनते सरो की सुबह हो गई। सरो और सुबोध तनु के कमरे का एक बार फिर से निरीक्षण कर , साफ -स्वच्छ बेड की बड़े सलीके से बिछी चादर को, हथेलियों के स्नेहिल स्पर्श से, बड़े प्यार से सलवटें न होने पर भी सलवटें दूर कर ,घर भर का चक्कर लगा ,सोफे पर पसर गए।
पर सरो को चैन कहाँ ? फिर रसोई की ओर दौड़ गई ।कहीं कोई कमी तो नहीं रह गई ? चश्मा लगाकर अलमारी में रखी सारी बरनियाँ देख लीं।दूध- मसाला ,जीरावन ,बादामपाक ,लसोड़े का अचार ,अठाना हरी मिर्च का अचार और बहू की पसंद का कॉफी पाउडर।सारी बरनियाँ चमचमाती खिलखिला रही थीं ।
कुछ तो करना था,कुछ तो भूल रही हूँ।हाँ कचौरी के लिए दाल जो भिगोनी है ।
“फ्लाइट लैंड हो गई होगी न जी !”
“अरे सुनो तो बहू का फोन है ,आधे घंटे में घर पहुँच रहे हैं।”
सरो ने बाहर की बत्ती जला दी और शॉल लपेट, स्लीपर सटका ,आंगन में चहल कदमी करने लगी।
सफेद रंग की लंबी गाड़ी गेट पर खड़ी हो गई ।सरो फुर्ती से गेट की ओर लपकी।गठिया से शिथिल हो गए बूढे़ पैरों में उत्साह -ऊर्जा का संचार हो गया।
माँ! ऊँचे पूरे उनके लाल ने माँ को अपनी बाँहों में भर लिया खुशी से उमगती आँखों नीर झर पड़ा।बिल्कुल नहीं बदला उनका तनु।कल तक जो उनकी बाँहों में ,घूम-घूम लोरियाँ सुनता था,आज… वह बच्चे की नाईं दुबक गईं।अपूर्व सुख की अनुभूति।
पर मन के एक कोने में दबा हुआ भय सिर उठा रहा था।ऊँहहह! नहीं ऐसा नहीं हो सकता।मिसेज चौपड़ा कुछ भी कहती हैं ,किसी की खुशी उनसे कहाँ देखी जाती है?
हुआ यूँ था कि पूरे अड़ोस पड़ोस में वे गा आईं थीं कि अगले महीने उनके बेटा-बहू आ रहे हैं।झटपट सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर वाली मिसेज़ चोपड़ा के यहाँ भी चली गई थी पर मिसेज़ चोपड़ा उनकी खुशी से खुश न होकर बोली -जरूर कोई काम होगा ,शायद प्रॉपर्टी के लिए आ रहा हो ,तभी पास में बैठी मिसेस खन्ना ने भी उनके सुर से सुर मिला दिया । वे भुनभुनाते हुए उल्टे पाँव अपने घर लौट आईं । पर मन में शंकाओं के कुकरमुत्ते सिर उठाने लगे ।उन्होंने सिर झटक कर सब कुछ दूर झटकने की कोशिश की।नहीं ! उनका तनु ऐसा नहीं कर सकता पर फिर एक विचार मन में हिलोरे लेने लगा -क्या करें ? आजकल हवा ही ऐसी चल रही है।वह अंदर ही अंदर सहम गई। सुबोध ने पूछा भी , पर वह कुछ न बोली।गुमसुम सी हो गई।
तभी जींस टॉप में कसी बहू उनके पैर छू ,गले लग गई।सरो को तो मानो सारा संसार मिल गया।
तनु और बहू के आने से घर भरा -भरा सा लगने लगा। बहू फ्रैश हो कर आ गई थी।सरो उठकर किचन की ओर जाने लगीं। माँ आप बैठिए मैं चाय बनाकर लाती हूँ ।
थोड़ी ही देर में नक्काशी वाली ट्रे में ,सुनहरी किनार वाली सफेद प्यालियाँ और बिस्किट सजा लाई।पापा आपकी ब्लैक टी,माँ आपकी अदरक वाली चाय ।सरो ने मुस्कुराते हुए कप उठा लिया…।चाय की चुस्कियों के साथ ही ‘मिसेज़ चौपड़ा’।
माँ कहाँ खो गई ?तनु उनकी गोद में सिर रखकर, सोफे पर पसर गया।
“बस बेटा तुम्हारा बचपन याद आ गया।कितने अच्छे थे न वो दिन ?”
“हाँ माँ !” तनु उठा और आँगन की ओर बढ़ चला।
“माँ यह घर-आँगन तो यादों का दस्तावेज है।मुझे याद है….लॉन में जब आप पानी देती थीं तब हम पानी में कितनी मस्ती करते थे और यह गुलमोहर मनु के दूसरे बर्थडे पर लगाया था।इस पारिजात के झरे सफेद फूलों से गणेश जी की झाँकी सजाते थे।दिवाली पर यह लालटेन और सीरीज़ से सजा तना खड़ा रहता था और हाँ माँ ! बारिश के दिनों में छत पर नालियाँ बंद कर हम छत पर पानी भर लेते थे और कैसी छपाछप्प करते थे!क्रिकेट खेलते थे,कैच लेने के लिए पानी में गिरते थे।सब कुछ याद है माँ!”
माँ चुप थीँ।आँखों से नीर अविरल बहा जा रहा था।
“माँ इन यादों के जीने के लिए, हम ‘मातृछाया’ में आते हैं , प्राणवायु पाकर फिर उड़ जाते हैं , पर प्राण आप ही के पास रह जाते हैं, आप और बाबा के पास।आप दोनों की चिंता लगी रहती है। इसीलिए आपको लेने आए हैं । घर की देखभाल के लिए रामू काका हैं।बगीचे और घर दोनों की देखभाल होती रहेगी।”
सरो ने बेटे को गले से लगा लिया ।उनकी परवरिश जीत गई थी ।उनके दिए संस्कारों की मजबूत नींव ,कोई आंँधी नहीं गिरा सकती। उनकी गर्दन तनी हुई थी।
हाथ में विदेशी चॉकलेट के पैकेट लिए वे दनादन सीढियाँ चढ़कर ,मिसेज़ चौपड़ा के फ्लैट की डोरबैल बजा रही थीं।

यशोधरा भटनागर
देवास

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