काव्य : भेद मिटाये – मनोरमा रतले दमोह

भेद मिटाये

कितने पक्षपाती होते है ना हम
जब चाहे स्वार्थ बस..कुछ भी कहते जैसे
कभी लड़की भी हमारी लड़के जैसी
हम लड़के लड़की मे फर्क नहीं करते
क्यों भाई..
करो ना फर्क..
जब प्रकृति ने ये फर्क किया
तो आपकी हमारी क्या औकात
जाओ..लड़ो..
उस भगवान से
कि हमे ही क्यों माँ बनने का सुख दिया
पुरूष को क्यों नहीं…
वेबजह.. की वजह बनाओ
लड़ो और लडा़ओ
सही बात तो ये है
प्रकृति ने सभी के कार्यों का विभाजन किया
इसका ये कतई मतलब नहीं कि
कोई भी किसी का काम नहीं करेगा
कि रोटी बनाने से लड़का लड़की हो जायेगा
तो नौकरी करने से लड़की बेटा
ये सब सुविधाएं है जैसे भी हो..
दोनो को मिलकर गृहस्थी की गाड़ी चलाना
बस इतनी सी बात..
पर इस बात को आज कोई समझना नहीं चाहता..
जिसको खासकर आजकल के माँ बाप
आप ही बताये..
समय कोई भी रहा हो
पर पुरूष की प्राथमिकता हमेशा
रूपये कमाने की रही
तो वो क्या आज बदली..
नहीं.. ना
बल्कि आज तो वो
परिवार के साथ घर पर भी हाथ बटा रहे
मतलब जिम्मेदारी बढ़ी
दायित्व बढ़े
पर इसका उल्टा देखे
बेटियो पर स्त्रियों पर
सदा घर की जिम्मेदारी रही..
पर अब
माँ बाप कहते है
हमने अपनी बेटी को प्यार से पाला है
कभी एक गिलास तक नहीं उठवाया
चौका चूल्हा कभी नहीं करवाया
बहुत पढाई लिखाई करवाई
अनुशासन मे नही रखा..
अभाव क्या होता है
सिखाया बताया ही नहीं
बताये आप..
क्या ये सही है
जो आपकी वास्तविक जिम्मेदारी थी
जो आपकी पहचान थी
वो आपने सिखाया ही नहीं
यही बात …
अगर लड़के के माँ बाप भी बोले
कि हमने बेटे को प्यार से पाला है
घर से बाहर कभी भेजा नहीं
बस घर का ही काम करता है थोड़ा मोड़ा.. तो सोचिऐ
स्थिति कितनी विकराल होगी..
बात की गंभीरता को समझे
लड़की हो या लड़के
अपने अपने क्षेत्र मे
महारत तो होनी चाहिए
नये दायित्व संभालाने का मतलब
ये नही ..
की हम अपनी जिम्मेदारियों से भागे
तो..
समय रहते इस बात को समझे
और बेटी बेटे की परवरिश करते समय
जरूर सोचे…
और ये भेद मिटाये

मनोरमा रतले
दमोह

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