लघुकथा : चकल्लस – सुमन सिंह चन्देल ,मुजफ्फरनगर

लघुकथा

चकल्लस

“हेलो वाला हाय! ”
“कोई है उधर? ”
“पाय लागू जिज्जी…। ”
वह थोड़ी- थोड़ी देर में पोक कर रहा था जबकि मुझे आज ही एक किताब के प्रूफ पढ़कर देने थे। मुश्किल से एडिटिंग की फ्रीलांसर बनी हूँ।
“कैसे हो भुला ? “- मैंने टैक्स्ट किया।
“खूबसूरत हूँ। ” उसने लिखा।
चल पगले! ये वहम कब से पाला है?”- मैंने उसे छेड़ना चाहा।
“माँ कहती है । ”
“माँ तो माँ है वीरा, तेरा मन बहलाने को कहती है।”
“क्या जिज्जी ! क्या मैं सच में सुन्दर नहीं?”- उसने भी रुआंसा होने का नाटक किया।
“मज़ाक कर कर रही हूँ, बुद्धू। ”
वह थोड़ा खुश हुआ।
“अच्छा! मेरी खुबानी कहाँ हैं?”-मैंने बात बदली।
“रास्ते में हैं।”-उसने अब हँसता हुआ चेहरा बनाया।
“अच्छा चल काम कर ले । आज के ऑक्सीटॉसिन का कोटा फुल हुआ”, मैंने कहा।
“जिज्जी, किसी दिन मुझे भी चकल्लस सूझ सकती है।”-वह इतराते हुए बोला।
” चल भुला, तब की तब देखेंगे।- कहकर मैं रसोई की ओर बढ़ गयी।

सुमन सिंह चन्देल
मुजफ्फरनगर

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