लघुकथा : विक्षिप्त – कमलेश झा झांसी

लघुकथा-

विक्षिप्त

अब हमारे घर से मुख्य सड़क इतना दूर भी तो नहीं थी कि वहां हो रहे कोलाहल को हम सुन न पाते।जून लग गया था। असहनीय सूरज की तपिश से दोपहर में कर्फ्यू लग जाने जैसा आभास हो रहा था। हर ओर छायी निश्तब्धता के बीच अचानक उठे एक शोर ने मुझे चौंका दिया। पहले तो इच्छा हुई कि कूलर के सामने से कौन उठे। किंतु जिज्ञासु प्रवृति होने के कारण रहा नहीं गया। कूलर की ठंडक का मोह त्याग कर मैंने घर के दरवाजे खोले और सड़क की ओर देखा। मोहल्ले के बच्चे विक्षिप्त से लग रहे व्यक्ति को पत्थर मार-मार कर भगाने की कोशिश कर रहे थे। इस कृत्य में बच्चे ही नहीं बड़ी उम्र के लोग भी शामिल थे। फटेहाल विक्षिप्त अस्पष्ट शब्दों में चिल्लाता हुआ यहां-वहां भाग रहा था। इस भागम-भाग में उसके कपड़े भी अस्त-व्यस्त हो गए थे। अर्धनग्नावस्था में जब वह प्रतिकार करने के लिए रूक कर नीचे पड़े पत्थर उठाकर वापस फेंकता तो उसके पीछे पड़े लोग भयभीत होकर रूक जाते। इस शांति काल का लाभ उठाकर विक्षिप्त फिर भागने लगता। लोग फिर शोर मचाते उसके पीछे भागते। 47 डिग्री तापमान वाली दोपहर में चल रहे इस घटनाक्रम से मुझे बहुत कोफ्त हो रही थी। सड़क से भागकर वह विक्षिप्त हमारी गली में आ गया था। मैंने सुरक्षा के लिहाज से मुख्य दरवाजे के लोहे के जाली वाले दरवाले बंद कर लिए। जाली के अंदर उसने मुझे खड़ा हुआ देख लिया था। वह ठिठक कर मुझे कातर दृष्टि से देखने लगा। जाने क्या था उसकी नम आंखों में कि हमने जाली वाले द्वार खोल दिए। वह शिकायती अंदाज में कुछ बड़बड़ाने लगा। डर तो मुझे लग रहा था फिर भी हिम्मत करके बाहर चबूतरे पर निकल आया। वह भी थोड़ा आश्वस्त होकर चबूतरे पर एक ओर बैठ गया। उसके पीछे आ रही मोहल्ले के उद्दंड लड़कों की भीड़ मुझे देखकर रूक गई और चिल्लाने लगी ‘आप अंदर हो जाओ भाईसाहब, इसका कोई ठिकाना नहीं है। अभी पत्थर मार देगा।‘ विक्षिप्त के चेहरे पर फिर भय के भाव उभर आये थे। मैंने डांट कर उन लड़कों को भगा दिया। लड़के खेल खत्म हो जाने पर उभरने वाली निराशा सा भाव लेकर वापस लौटने लगे।अब तक उस विक्षिप्त ने अपने कपड़े दुरूस्त कर लिए थे। उसकी आंखों में आभार के भाव थे। ‘पानी पिओगे ?‘ पूछने पर उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया। मैंने अंदर से लाकर उसे सब्जी-रोटी व पानी दिया। वह तत्परता से उसे खाने लगा। मैं वहीं पास में खड़ा होकर उसे देखता रहा। गली के छोर पर ओट में खड़े मोहल्ले के लड़के छिपकर उसे देखते रहे। खाना खाने के बाद पानी पीकर, तृप्ति पूर्ण डकार लेकर उसने फिर उसी आभार पूर्ण नजरों से मुझे देखा और हाथ जोड़ दिए। मैंने उसे तुरंत वहां से निकल जाने को कहा। उसने छिपकर खड़े लड़कों की विपरीत दिशा की ओर दौड़ लगा दी।मैं नजरों से दूर हो जाने तक उसे देखता रहा। मेरे डर से उन उद्दंड लड़कों की उसका पीछा करने की हिम्मत नहीं हुई।दरवाजा बंद करते हुए मैं सोचने लगा कि कहां से आ जाते हैं ये। किसी न किसी ने तो इन्हें जन्म दिया ही होगा। कहीं न कही तो होता होगा इनका भी परिवार। वे कभी इनका हाल-चाल जानने का प्रयास नहीं करते होंगे। जन्मजात विक्षिप्त हैं या किसी षड़यंत्र के तहत इन्हें इस हालात में पहुंचा दिया गया। दिमाग में उठ रहे ऐसे अनेक प्रश्नों से सिर भारी होने लगा।बाहर फिर शोर उठने लगा था। मैं सोचने पर विवश हो गया कि विक्षिप्त कौन है, वह व्यक्ति या इस उद्दंडों की टोली के लोग।

कमलेश झा
झांसी

9450808514

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