लघुकथा : ख्वाब या हकीकत – निधि नीतिमा, मुजफ्फरनगर

ख्वाब या हकीकत

सुनो,
तुम वाकई हक़ीक़त हो या मेरा कोई ख़्वाब हो, जिसे मैं जाने कब से देख रही हूँ और उस ख़्वाब में ही जी रही हूँ। कभी कभी ऐसा महसूस होता है कि तुम एक धुंए के बादल की तरह हो जिसे मैं देख तो सकती हूँ पर अगर हाथ लगाऊँगी तो वो हवा हो जाएगा। इसी तरह कभी कभी तुम इतने सच्चे लगते हो कि मैं पूरी ज़िंदगी तुम्हारे साथ जी सकती हूँ। तुम्हारी बातें, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारी नज़रें और तुम्हारी मुस्कान, सब कुछ एक दम जादुई सा लगता है। जब भी मैं किसी मुश्किल में होती हूँ तुमसे बात कर के सब खुद ब खुद ठीक हो जाता है। किसी थकान भरे दिन के बाद जब शाम को तुम्हारी आवाज़ सुनती हूँ तो एक पल में ही सुकून आजाता है। जब मैं एक दम बन संवर कर तुमसे पूछती हूँ “कैसी लग रही हूँ?” उस पल में तुम जो बातें तुम लफ़्ज़ों में बयां नही कर पाते वो तुम्हारी मुझे एक टक तकती नज़रे बता देतीं हैं। अक्सर जब मैं एक हार के बाद मायूस होती हूँ तो भी तुम जो एक हल्की मुस्कान के साथ कहते हो ” कोई बात नही अगली बार हो जाएगा।” इसके बाद मेरी हार का गम भी कहीं गायब ही हो जाता है। ऐसी ही ना जाने कितनी ही बातें हैं जो तुम्हे हक़ीक़त होने से अलग करती हैं और ये मानने पर मजबूर करतीं हैं कि तुम सच मे ख़्वाब ही हो। हम सब जानते हैं की ख़्वाबों को हासिल कर पाना आसान नही है ठीक उसी तरह जिस तरह मेरे लिये तुम्हे हासिल करना आसान नही है। हमारे बीच जो ये कई मिलों की दूरियाँ हैं उन्हें हरा कर तुम तक पहुँचना वाकई बहुत मुश्किल है। कहने को तो ये महज़ ज़मींनी दूरियाँ हैं मगर जाने क्यों ये पल पल बढ़ती नज़र आतीं हैं। इन्हें बढ़ाने के लिए हमारी रोज़मर्रा की बढ़ती मशरूफियत, वक़्त की कमी, कुछ गलतफहमियां और ऐसी ही कई बातें जिम्मेदार हैं। इसलिए सोचती हूँ कि अच्छा होगा अगर तुम एक ख़्वाब ही होगे, तब तुम्हे कोई मुझसे दूर नही कर पाएगा, कोई छीन नही पाएगा, कोई भी दूरी इतनी नही बढ़ेगी की तुम्हे मुझसे दूर कर सके। मेरा ये ख़्वाब भले कभी मुकम्मल हो या न भी हो पर हमेशा मेरे पास महफूज़ रहेगा.

निधि नीतिमा,
मुजफ्फरनगर

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