काव्य : बचते बचाते – आर्यावर्ती सरोज “आर्या” लखनऊ उत्तर प्रदेश

बचते बचाते

बचते -बचाते इस ज़माने से
निकल तो आई हूं।
अब तुझे छुपाऊं कहां?
वो,जगह ढ़ूढ़ती हूं।
गिद्ध सी गड़ी निगाहें,
जिस्म पर मेरे, यह
जो उठे तेरी तरफ़ फ़िक्र से,
वो, नज़र ढूंढ़ती हूं।
शस्त्र बन कर जूझती रही,
जीवन के रणक्षेत्र में,
तुझे तीर बना इस दुनियां में,
किस तूणीर में छोड़ दूं।
आज बेटी है,
कल मां बनेंगी,
सदियों से चली आई
परंपरा कैसे तोड़ दूं।
बेटी बचाओ का मुहीम,
चलाया तो है साहब !
सच ही तो है!
बेटियों को तो बचाना ही होगा,
शरीफ़ों की शक्ल में,
भेड़िए घूमा करते हैं यहां।

आर्यावर्ती सरोज “आर्या”
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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