काव्य : दो जून की रोटी – पद्मा मिश्रा. जमशेदपुर. झारखंड

दो जून की रोटी

सबकी ये चाहत है बस दो जून की रोटी.
क्या क्या न दिखलाती है.दो जून की रोटी
नन्हीं सी आंखों में.बसे सपनों की आस में
करती वतन से दूर है.दो जून की रोटी।

क्या क्या न दिखलाती है.दो जून की रोटी
सहते हैं धूप. ताप.और बारिश की तल्खियां.
जब भूख की ज्वाला से न दबती हैं सिसकियाँ
तब चांद में भी दिखती है दो जून की रोटी

क्या क्या न दिखलाती है.दो जून की रोटी
जलती हुई सडकों पर नंगे पांच चलाती.
जमती हुई सी ठंड में दिन रात जगाती
मजबूर जिदगी का असल नूर है रोटी.

क्या क्या न दिखलाती है.दो जून की रोटी।

पद्मा मिश्रा.
जमशेदपुर. झारखंड

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here