काव्य : एक नवगीत – किरण मोर , कटनी

एक नवगीत

जिन्दगी में ऊब जब रहने लगे
उम्र काभी बांध जब ढहने लगे
तो समझ जाओ जरुरत है नहीं
उससे पहले खुद कोई कहने लगे।

सांसें भी अब कब तलक चल पायेंगी
एक न एक दिन ये लड़ी गिर जायेंगी
आए तो जाना भी इस जग से हमें
तन आलिंगन व्याधियां घिर आयेंगी
इंद्रियां पांचों शिथिल रहने लगे
उससे पहले खुद कोई कहने लगे।

कितना तूने क्या किया किसके लिए
अपने थे या गैर वो जिसके लिए
कोई आया था पलट क्या पूछने
अपनी दी ज़िन्दगी गवां उसके लिए
स्वाभिमानी चोट जब सहने लगे
उससे पहले खुद कोई कहने लगे।

उन ही अपनों के लिए करता रहा
बन गई उनकी यूं ही तू मरता रहा
फिर भी चेहरे पर शिकन आई नहीं
तेरी मेहनत जेब वो भरता रहा
नैनों से क्यों अश्रु अब बहने लगे
उससे पहले खुद कोई कहने लगे।

चल रही आबो-हवा विपरीत है
*हवा का रुख किस ओर* वो ही रीत है
कर रहा मानव ये जितने कर्म भी
वो समझते हैं कि उनकी जीत है
कलयुगी चोला सभी पहने लगे
उससे पहले खुद कोई कहने लगे

वक्त कुछ बाकी है ले तू संभल जरा
प्रीत उससे कर जो शुभचिंतक तेरा
दोस्ती उस से निभा के देख तो
लगने लगेगा बस वो ही एक है मेरा
छोड़ सब उसके जो दर रहने लगे
उससे पहले खुद कोई कहने लगे।

किरण मोर
कटनी

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