
जिन्दगी का दर्द , जीवन है?
आदमी का दिमाग एक विशाल पुस्तकालय है, आजकल आदमी ने इस पुस्तकालय की पुस्तकों को देखना बन्दकर दिया है। आदमी की इसी भूल के कारण इस पुस्तकालय अर्थात दिमाग में धूल जमना शुरू हो गयी, किन्तु मुझ जैसे कुछ लोग इस दिमाग के अन्दर झॉक कर किताबों में धूल नही लगने देते और किताबों को पढते रहते है। मैं जहॉ अपने दिमाग को तो पढता ही हॅू वहीं आसपास के लोगों के मस्तिष्क को भी पढने का प्रयास करता हूं। दिमागों में ताकाझॉकी करने से कई तरह के रहस्यों से परदा उठता है, मैं उन्हेंं अपने शब्दों में पिरोकर पाठकों तक पहुंचाने एक डाकिया बन जाता हॅू ताकि आप सभी डाक आईमीन मेरे मस्तिष्क से निकली दर्दभरी हर चिटिठयॉ पढ सको।
मेरी जिन्दगी झण्डूबाम की तरह है और मैं सिर्फ रोना जानता हॅू। मेरी जिंदगी में दर्द इतना है कि झण्डूवाम कि वे सारी डिविया जो कम्पनी एक लाट में उत्पाद करती है वे सब इस्तेिमाल भी कर लॅू तो दर्द को कोई असर नहीं होने वाला, या यूं समझे मेरी जिंदगी में दर्द ऐसे बिंधा है जैसे दर्द न हुआ दर्द की नदी थपेडे मारकर बह रही हो। मैं विचारा दर्द का मारा, उस दर्दभरी विशाल नदी में तैरना सीख रहा हॅू और कभी-कभी लगता है कि दर्द की उफान मारती लहरें कई मगरमच्छों के रूप में अपने जबडों को फाडे मुझे निगलना चाहता है। मैंने भी दर्द के कई दरवाजे खोल रखे है इसलिये दर्दभरी नदी की खूनी लहरों में भी मैं मुस्कुूराता बच निकलता हॅू। जो जिन्दगी को नहीं जानते, जिनकी उम्र कट चुकी है वे जिन्दगी कैसे जीते है, इसका ज्ञात देते है। जिन्दगी के दर्द का जिन्हे पता नहीं है, वे दर्द से भरे खुमारी में जीने के आदी बन चुके लोग, जिनकी जिन्दगी में दर्द उनके पोर- पोर में बसा हुआ है वे दर्दनिवारक दवा की फेक्ट्रियॉ तक चट कर चुके होते है, उनकी जिंदगी का तेल चुकता होने को होता है, वे जानलेवा बीमारी को अपने शरीर में स्थान दे देते है और बीमारियॉ उनके शरीर के हर कौने में अपना तम्बू गडाकर उनके शमशान का रास्ता तैयार कर देती है। उनकी चूक इतनी भर रहती है कि वे जिंदगी के दर्द को दर्दनाशक से हटाने की होशियारी में शरीरविनाशक प्रयोग कर चुके होते है, अर्थात दर्द के मूल में जाकर उसे मिटाने की बजाय जिंदगी को मिटा बैठते है।
मैं अक्सर अपने मस्तिष्कह की किताबों को पढता रहा हॅू इसलिये जिंदगी के हर दर्द को, मैं जानता हॅू अपने दर्द को, दर्द के मर्मस्थल को, मर्मस्थल के हर संकेत को, जो शरीर के किस भाग में दर्द है, दर्दनासक झण्डू्बाम, केप्सूल, गोलीयॉ जो दर्द को शरीर की नसों में छिपाकर आराम का एहसास कराकर फिर अपना असर बताकर शरीर को रोगी बनाकर शरीर के कई उपयोगी अंगों में बीमारियों को पैर रखने की जगह दे उस अंग पर बीमारी का कब्जाू करायेगी। मैं जिन्दैगी और दर्द को समझने पढने में लगा रहा हॅू इसलिये जिन्दगी और उसके दर्द के अंतर को जान चुका हॅू। दर्द जो पैदा होने के बाद से शुरू होता है, दर्द जो जिन्देगी की उम्र के साथ पलता-बढता है और घर-परिवार, नाते-रिश्तों, मित्रों-मिलनेवालों व समाज के बीच होने वाले प्रिय-अप्रिय संवादों, मीठे-कडवे विवादों से जो दर्द पैदा होता है।
दर्द का भी दर्द होता है। कोई दर्द देता है तो कोई दर्द सहता है। दर्द देने लेने में तीसरे किस्म के लोग दर्शक होते, दर्द देने वाला खुश होता है कि चलो अब ये रोयेगा-धोयेगा, मरेगा-मिटेगा पर दर्द लेने वाले के चेहरे पर सिकन न पडे और वह मस्तीं में खुश दिखे तो दर्शक बने लोगों को दर्द होने लगेगा कि इतना दर्द-तनाव के बाद यह दर्द से भरा क्यों नहीं है, जरूर बेशरम किस्म का गॅवार होगा जो दर्द को भाव ही नहीं दे रहा है। अधिकांश लोगों की जिन्दगी में चारों ओर दर्द के सैलाब उमड रहे है, दर्द की बाढ उन्हें बहाना चाहती है, दर्द के ग्लेशियर पिघल कर पहाडों को दरकाने की ताकत रखते है पर दर्द से बेरूखी रखने वाले इन लोगों की जिन्दगी अंगद के पैर की तरह शांतिप्रिय रूप से जमी हुई है। दुनियावालों को यह शांति भी एक दर्द लगती है और वे जिंदगी के रास्ते में इतना दर्द बिखेर देते है कि जिंदगी दर्द का ताज बन जाये।
दर्द असल में बहुरूपिया है और इसका असर मस्तिष्क-दिमाग पर होता है, पर कुछ लोग दिमाग का बोझ कम करके दर्द को दिल पर ले लेते है। दर्द सिंगल परसन हो सकता है अथवा डबल या बहुसॅख्यक, पर उसका सबसे ज्यादा बोझ मस्तिष्क पर हावी होता है। दर्द कई टुकडों में बॅटा होने से जब असहनीय हो जाये तो आदमी पागल भी हो सकता है और जो सह ले वह जिन्दगी की परीक्षा में उत्तीर्ण माना जाता है। मेरे जैसे कुछ कुछ मनचले दीवाने दुनिया में होते है जो जिन्दगी की राह में अंगारों की तरह दर्द के लावों की रेलिंग तोडकर दर्द को अूंगूठा दिखाते मिल जायेंगे, जैसे मैं हॅू।
मेरी जिन्दोगी भी दर्द की दास्ताॅन रही है। जिन्देगी में जो भी करना चाहा, लोगों ने करने नहीं दिया, हर जगह कोई न कोई किसी न किसी बहाने आता और दर्द की आधियों के हवाले मुझे छोड जाता। मैं हर दर्द की बाधायें पार करता गया, जिन्होंने दर्द दिया वे लोग मेरी कुशलक्षेम पूछने आते, असल में वे यह देखने आते कि मेरे दर्द सहने की क्षमता क्या है, अगर मैं कुशल हॅू तो वे दर्द में होते और मेरे दर्दभरे घावों में जख्म देकर अपने दर्द को कम कर मेरे दर्द को बढाने की सोचते। मैंने अपनों के दिये दर्द को जिन्दगी के पिंचरे में पाल रखा है और में किसी के भी द्वारा किये गये दर्द को किसी को बॉटना नहीं चाहता हॅू। दर्द भी मुझसे मिलकर खुश है कि कोई तो उसे मिला जो उसको संभाल कर रखे हुये है। जिंदगी जैसे सूखे पतझड के पत्तो जैसी थी, मन होता था कि इसे खिडकी से बाहर फैक दू पर जब भी यह सोचता तो कोई न कोई खिडकी के आसपास आते जाते दिखाई देता, और में किसी की भी जिंदगी में दर्द देना नहीं चाहता था इसलिये दर्दभरी जिंदगी मेरी सहचरी बन गयी, मेरा जीवन हो गयी।
– आत्माराम यादव पीव
वरिष्ठ पत्रकार नर्मदापुरम

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।