
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर
आज का प्रश्न ?
क्या आपने जीवन में कभी संघर्ष किया?
उतर, बहुत, यूं कहें कि पूरी जिंदगी संघर्षों के शूलो पर चलते हुए, आज शांति की राह पर चल रही हूं, सकुंन की जिंदगी जी रही हूं,
कैसे?
शादी के पूर्व तक मैं बहुत सुखी और संतोषी, ,मासुम एक बेटी बनकर रह रही थी।
शादी के वक्त मात्र सत्रह वर्ष पूरे कर अट्ठारह वर्ष में प्रवेश किया, छोटी सी यह मासुम लड़की, दुनिया के रंग ढंग से अंजान एक ऐसे परिवार में ब्याह दी गई जिसमें परिवार के सभी सदस्य राक्षस की भांति थे।
तो क्या आप घरेलू हिंसा की शिकार हुई?
जी,
मेरी शादी जिससे हुई ,वह इक्कीस वर्ष में ही अपने स्टाफ की एक बड़ी उम्र की मेम से लग गये, और मां भक्त होने पर मां जैसा जैसा उन्हें कहती वह अत्याचार करने लगे।
फिर क्या हुआ?
बस शादी के सात आठ माह में जब में गर्भवती थी, तब मुझे धक्का देकर एक साड़ी में, चप्पल भी नहीं और निकाल दिया।
ओह।
फिर क्या हुआ?
मैं पिता के पास रोते हुए ग ई और पिता जो एक शिक्षक थे, गायत्री परिवार से सम्बन्ध रखते थे, ने मुझे हौसला दिया, बी,एड करवाया, मुझे शिक्षिका बनाया।
फिर।
फिर मुझे एक पुत्र हुआ, और मेरा जीवन चलने लगा।
आगे?
आगे यह हुआ कि पिता की मृत्यु हो गई, परिवार वालों ने दूसरी शादी का कहा,
और मेरे पति को पता चला कि मेरी दूसरी शादी हो रही है, तब ये झूठा दिखावा कर नकली माफी मांग बनावटी बातें बना मुझे लेने के लिए आए, सबने मना किया मत जाओं, पर पति ने बेटे को पढ़ाने उसके पालन पोषण का मुझे अच्छी तरह रखने का वादा किया ,और मैं इनकी बातों में आकर वापस इनके साथ, कलेक्टर सर की मोजुदगी में दोबारा आ गई।
तो वह औरत?
हां वह रही, पर मैं अंजान थी, पुछने पर यही उतर मिलता हट गई है, और मैं सुखपूर्वक रहने लगी।
पर एक दिन पता चल ही गया, और इधर मुझे दूसरा पुत्र हो चुका था, मैं आदि हो गई थी, कि मेरा पति मुझे ना चाहकर दूसरी के घर रहता है, पर बच्चों की ओर देखकर और कहां जाऊंगी के डर से चुपचाप रहने लगी, पर अब मेरी कहानी में नया मोड़ आया।
ओहो
क्या आया?
वह औरत इन पर दबाव बनाने लगी मैं रखैल नहीं रहना चाहती, मुझे पत्नी का अधिकार चाहिए और आपके बीबी बच्चे हैं उन्हें हटाकर तलाक लेकर मुझसे शादी करना होगी।
ओह, फिर?
फिर क्या एक वर्ष तक हम दोनो में बहुत झगड़े हुए, मैं निकलना नहीं चाहती थी, मेरे साथ हुएछल और बच्चों को लेकर मैं इनके ही घर में रहना चाहती थी, पर सास ससुर ननदें देवर सभी मुझे हटा उसे ही नाम देकर लाना चाहते थे, ये शासकीय सेवा में इसलिए किसी एक को ही पत्नी बता सकते थे, मेरे पति ने भी यह नहीं सोचा था ऐसा भी होगा, और यह हार गये पहले घर छोड़कर भाग गये, फिर एक दिन मुझपर इल्जाम लगाया कि मैं खराब हूं पुलिस में रिपोर्ट डालकर खूद को अच्छा साबित करने, मैं हैरान और परेशान, यहां और कोई नारी होती तो आत्महत्या कर लेती, किंतु मैं घबराई हुई नारी भी अंदर से टुटे दिल के साथ मासुमो की ओर देखती, जीने लगी,
ओह फिर।
फिर क्या वह दिन जो सात जनवरी का काला दिन काली रात बनकर आया मेरे लिए।
कैसे?
मैं रोज की तरह शाला गई हुई थी, मासुम बच्चे भी स्कूल गए थे, तभी मेरे पति और पूरे परिवार ने मेरा बसा बसाया घर , सामान सब ले लिया, शाम को ठंडी शर्द हवाओं में अकेले, रात घिर आई मैं और मेरे दो बेटे ठंड से ठिठुरते बाहर कर दिए गए, सारा मोहल्ला गवाह पुलिस भी आई , पत्रकार भी आए, पर मकान मेरे पति के नाम का, और जज के आदेशानुसार की जिनका मकान हे वह ले सकते हैं, मैं खूद शासकीय सेवक इसलिए कोई सहायता नहीं, बाहर ठंड थी ठिठुरते बच्चे थे और मैं अकेली थाने के बाहर , बैठी हुई, रात करीब एक बजे मेरी बहन और जीजा आए ,और मुझे अपने साथ उनके घर ले गये।
फिर क्या हुआ।
बस कसम ऐसी खाई कि अब जो हो जाए, मैं और मेरे बेटे जीकर बतलाऊंगा, मरकर नहीं, और यही पति के ही शहर में पति के ही सामने मकान लेकर बच्चों के साथ मां के साथ वैसे ही रहने लगी, बच्चों को पालने लगी ,जैसे कुछ हुआ ही नहीं,
पर।
पर क्या?
पर यह हुआ कि कम उम्र और छोटे बच्चे तब परिवार और समाज का दबाव पड़ने लगा मुझे अकेले जीवन नहीं जीकर शादी करना चाहिए,
पर मैं इस शब्द से दूर जा चुकी थी, पुरूष नाम से घृणा हो गई थी, बस मेरा मन बच्चों में ही लगने लगा, घर के अंदर हो या स्कूल के ,मेरी एक दुनिया थी तो वह थी मेरे सभी बच्चे , यानी मैं स्वयं में ही बच्ची बन ग ई थी, जग ,और जग से क्या लेना ,मेरा जीवन बच्चों में रमने लगा और बस प्यारी दुनिया मिलने से टुटे दिल को सम्बल मिलने लगा।
फिर।
फिर पति ने एक दिन न्यायालय का आदेश दे दिया जिसमें एक पुत्र उन्हें चाहिए था, उस औरत से बच्चे नहीं हो रहे थे,
ओहो?
गजब
फिर, फिर क्या मैंने वहां भी बच्चे की भलाई में उसे पिता को सौंपा, और पिता ने लेकर उसे बाहर पढ़ने भेज दिया।
फिर क्या हुआ
फिर मां और एक पुत्र के साथ रहकर जीवन जीने लगी,
लेकिन, जमाने में कुछ सुखी लोग बात बात पर ताना देने ,सताने से नहीं चुके, अकेली औरत देखकर महिला साथियों ने मेरी बेइज्जती करने में भी कसर नहीं छोड़ी, कभी कहते मैं मानसिक रूप से रोगी हूं तो कभी कहते मैं बुरी हूं तो कभी कहते ,लो मैं ससुराल और पति नहीं संभाल सकती, लेकिन मुझे इन सब बातों की आदत हो चुकी थी, और मैंने मेरी इन साथी शिक्षिकाओं को भी सभी उतर दिए, कि नारी होकर तुम नारी को नहीं समझ सकती, तुम्हें क्या पता पति के पलट जाने से क्या क्या झेलना पड़ता है एक नारी को,
पर।
पर क्या मेम।
पर मैं पुरूषों को अच्छा मानती हूं,
आपको अचरज होगा, पर मेरी अकेली लाइफ में मैंने देखा ,कि पुरूषो ने कभी मेरा मजाक नहीं बनाया ,कभी मेरी बेइज्जती नहीं की, कभी मेरे साथ बुरा व्यवहार नहीं किया ,ना ही कोई ताना दिया, जबकि अभी बात भी निकलती तो सभी हौसला ही देते, अच्छे हो ,अच्छे से जिओ, बच्चों की ओर देखो, तब मुझे लगा समाज में महिलाएं ही महिलाओं के खिलाफ रहती है, और बदनाम पुरुष होते हैं, आज मेरे साथ मेरे दोनों बेटे है, घर का मकान है, शांति का जीवन है, बालिकाएं देख रही हूं, बेटों के लिए, बस एक काम रह गया, दोनों बच्चों की शादी का, फिर सफल कहलाऊंगी।
मेम धन्य हे आप और आपकी संघर्ष भरी दास्तां इतना सब सहने के बाद इतना उतम जीवन जी रही, मान गये आपको सेलुट।
ममता वैरागी
धार

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।