पिता के मूलमंत्र बिटिया के लिए
वैसे तो आजकल घर के हर छोटे बड़े सदस्य के हाथ मे मोबाइल ही दिखाई देता है। दूर दराज के आत्मीयों से हम वाट्सप पर ही आपसी संवाद की पूर्ति कर खुद को धन्य मान लेते हैं। पर जो आनंदात्मक अनुभूति अपने हितैषियों को पत्र लिख कर उस दौर में होती थी,उन आत्मीय भावनाओं का तिल मात्र भी एहसास ये मोबाइल मन को नही करवा पाता।
अब देखो न *अंजू* उस दिन वीडियो कॉल पर तुम्हें उदास देख कर मेरे भीतर खलबली सी मच गई थी। उस दिन हम दोनों ही अपने-अपने किरदारों को निभाते हुए खुल कर मन की बात नही कर पाए। पारिवारिक घेराबंदी के बीच हमारी भावनाओं को भला समझेगा भी कौन!!!
तभी तो पत्र लिख कर तुम्हारा हाल चाल जानने की जिज्ञासा पूरी कर पा रहा हूँ।
तुम खुश तो हो न….नए परिवार में..देखो हमेशा ख़ुश रहा करो…। हमने तुम्हे घर की देहरी से भले ही बिदा किया हो,पर ह्रदय में तुम्हारी सारी अठखेलियाँ दिन रात उछलकूद मचाती रहती हैं। अनजाने में ही जब थका हारा घर आता हूँ तो आरामदेह कुर्सी पर बैठने की बजाय फर्श पर उकड़ू बैठ जाता हूँ घोड़े की मुद्रा में…तुम्हारे वजूद को पीठ पर बैठा महसूस करने के लिए। वो तो तुम्हारी मम्मी चाय चाय कहकर हमारी घुड़ समाधि तोड़ देती है।
देखो बेटा ससुराल में रमने के लिये थोड़ा वक्त तो लगता ही है। धीरे-धीरे सब तुम्हें समझने लगेंगे…और तुम भी उन्हें समझ जाओगी।
पता है प्राथमिक शिक्षा के दौरान स्कूल में रटी हुई एक कविता की यह पंक्ति…*फूलों से नित हंसना सीखो,भवरों से नित गाना* हर वक्त तुम्हारी जबान पर रहती थी। क्यों याद आया न तुम्हे….। तो यही वक्त है उस कविता के भावों को अंगीकार करते हुए आत्मसात करने का।
सरल सहज सी इस पंक्ति के अर्थ समझें तो हम जान जाएंगे कि, प्रकृति की हर निर्जीव सजीव शै हमें शिक्षित करते हुए हमारी सुप्त इंद्रियों के उत्साह को बढ़ाते हुए मन की शिथिलता को गति देती है। फूल चाहे जहां भी खिलें अपना गुण नही त्यागते। चाहे कितने ही तूफान आयें परिंदे चहचहाना छोड़ देते हैं क्या ?
परिवार के मिज़ाज भले ही मेल न खाते हों… तुम अपने सीखे संस्कारों को कभी नही भूलना। संयम और धैर्य की कुंजी से तुम जटिल से जटिल बाधाओं को पार कर लोगी।यह मेरा आत्मविश्वास है।
मुझे पता है तुम वहां बहुत खुश हो…। भरा पुरा परिवार तुम्हारे आगे पीछे घूमता है।
मैं तो बस यूं ही कागज कलम लेकर बैठ गया तुमसे बतियाने।
पत्र लिखकर भारी मन हल्का हो गया है। तुम्हे भी जब ऐसा कुछ लगे तो वीडयो कॉल की बजाय संक्षिप्त ही सही,दो शब्द पत्र में लिख कर मुझे दिलासा दे दिया करो। नव जीवन की तुम्हें बहुत-बहुत शुभकामनाएं और आशीर्वाद।
तुम्हारा पिता…सखा और तुम्हारी माँ का नादान पति….
अंतिम बात……आजकल डाकिए घर घर पत्र देने में आलस कर जाते है। तुम खुद ही पास के डाकखाने में जाकर अपने नाम का पत्र प्राप्त कर लेना…बिल्कुल मेरी तरह.
चरनजीत सिंह कुकरेजा
भोपाल

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
आपने आज के आधुनिक संचार के साधनों से सुसज्जित युग में पत्रों के गौरवशाली महत्व को बहुत ही खूबसूरती से बयां कियाहै l
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Very nice.. patron ka mahatva khubsurti se byan Kiya hai.. Dil Ko chhu Lene wala lekh hai