काव्य भाषा : होली की हुड़दंग – रेखा कापसे ‘कुमुद’ नर्मदापुरम मप्र

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कुंडलिया छंद–होली

होली शुभ त्यौहार की, प्रचलित कथा महान।
नृप हिरण्यकश्यप रहे, हिय अति दुष्ट प्रधान।।
हिय अति दुष्ट प्रधान, तनय जन्मा अति ज्ञानी।
नाम दिया प्रहलाद, हृदय नारायण ध्यानी।।
राजन् उर अति तंग, दिया सुत बहना झोली।
भीषण अनल चपेट, बचा सुत जलती होली।।

होली के त्यौहार में, मिटता अंतस बैर।
खुशियाँ रंग गुलाल ले, करती नभ की सैर।।
करती नभ की सैर, हृदय कटु भेद मिटाती।
खूब बनें मिष्ठान, मित्र-रिपु गले लगाती।।
पिचकारी भर रंग, निकलती जन की टोली।
गली-मुहल्ला तंग, मनुज मिल खेले होली।।

होली पावन पर्व में, हृदय भरें अनुराग।
ढोल मँजीरे साथ ले, मनुज सुनाते फाग।।
मनुज सुनाते फाग, नृत्य कर जगत लुभाते।
नीला-पीला-लाल, गुलाबी रंग लगाते।।
कुमुद हृदय उल्लास, ईश भर देते झोली।
जग अनंत अनुराग, लिए आती शुचि होली।।

रेखा कापसे ‘कुमुद’
नर्मदापुरम मप्र

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