काव्य भाषा : नजर और नजारे – संगम त्रिपाठी बिरसिंहपुर

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नजर और नजारे

बसंत तुमने विरही को खूब छला है,
प्रियतम के वियोग में रुपसी का तन जला है।
बलमा खड़े है देश की सीमा पर,
ऐसे में प्रियतमा को तेरा आगमन बहुत खला है।
बसंत कोयल की कूक विरह में नहीं भाती है,
प्रियतम की याद रात दिन आती है,
संत भी बेचैन है तेरे आगमन पर,
ऐसे में उसे भगवत भजन बिल्कुल नहीं भाती है।
बसंत पवन भी मदहोश है,
जवान क्या बूढ़े के मन में भी जोश है।
चर अचर सब हो गए मदमस्त,
ऐसे में किसी को नहीं कोई होश है।
बसंत झूम रहे है वन उपवन,
गुनगुना रहे है गीत जन-जन।
बदल गए है नजर और नजारे,
ऐसे में स्वत: झूम रहा है तन मन।

कवि संगम त्रिपाठी
बिरसिंहपुर

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