

दुनियाँ
हर कोई अपना चाहता है
माँ बाप/ पत्नी बच्चे/मकान
मोहल्ला/बस्ती/गाँव/
तहसील-जिला/प्रदेश/देश
और दुनियाँ.
सब कुछ अपना चाहता है
तो/पराया क्या होगा
कौन होगा/क्यों होगा
और होगा कितना.
पत्नी पराए घर से आती है,
वही माँ होती है/
पुत्रों की/पुत्रियों की.
पुत्रियाँ पराए घर जाती हैं
बहुएँ पराए घर से आती हैं
वे पराए घर की पुत्रियाँ ही होती हैं.
पुत्री जहाँ जाती है/
घर बसाती है/
घरों से गाँव बनता है,
गांवों से तहसील जिला,
प्रदेश व देश/
और सबको मिलाकर बनती है दुनियाँ
पर हर कोई अपनी चाहता है
एक दुनियाँ।
– सत्येंद्र सिंह
पुणे, महाराष्ट्र

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

बहुत बहुत धन्यवाद सोनी जी।
बहुत सुन्दर रचना है आपका लक्ष्य शानदार एंव सराहनीय है बहुत बहुत वधाई सर
आपका बहुत ही सराहनीय काव्य है बहुत बहुत वधाई सर
सत्येंद्र सिंह जी, बहुत ही मार्मिक कविता. अपना – पराया कहने से दिल टूटते हैं. अपना शब्द सबको जोड़ता है. आज की जरूरत है हम सब भेदभाव को त्याग कर अपनापन को बढ़ावा देते रहे. जो देश की खुशहाली के लिए सबसे जरूरी है
संपादक जी को अच्छी कविता प्रकाशित करने के लिए और सत्येंद्र जी अच्छी रचना लिखने के लिए हार्दिक बधाई! ??
Bahut yatarth aur says hain
आदरणीय सत्येंद्र सिंह जी आपकी रचना दुनिया सांसारिक जीवन का यथार्थ पहलू का दर्शन है। साधूवाद…..
सत्येंद्र सिंहजी बहोत अच्छे और मार्मिक लिखते है!अभिनंदन!
Bahut he yatarth air says
सत्येन्द्र सिंह की कविता दिल को छूने वाली है।एक अच्छी कविता पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद।
Vastav hain sirji