काव्य भाषा : बनाता रहा मेड़ें -जितेन्द्र कुमार,चन्दौली

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बनाता रहा मेड़ें

लिए फावड़े कृषक खेत में तड़के ही आया,
फसल की भावी हरीतिमा, थी कर रही उल्लसित उसको
इस बार अदा कर दूंगा लाला का कर्ज, सोचते ही हर्षाया।

बाल सूर्य चढ़ने लगा ऊपर और ऊपर,
लेकिन वह खोदता रहा मिट्टी भू की,
बनाता रहा मेड़ें धरती जो थी ऊसर।
करता रहा चोट फावड़े की, था पसीने से तरबतर।
हो तृषित औ श्रान्त वह देखने लगा इधर-उधर।

मंदिर का कूप था नजर आया,
लेकिन दूरी देखकर जी थर्राया।
सूखती थूक को फिर से घोंटकर,मलिन अंगोछे से मुँह को पोंछकर,
वह लगा रहा अपने कर्म में सबसे बेखबर।
अब क्षुधा भी थी कचोटती उसको औ रवि था उसके ऊपर।

थीं चार मेड़ें और शेष बनानी उसको,
क्या करे वह? खाये?अथवा मेड़ें बनाये?
कल भी बन जायेंगीं ये मेड़ें,उसके क्लांत मन ने कहा
लेकिन…
तब तक सूख जायेंगे ये धान के बेहन।
………और वह फिर से बनाता रहा मेड़ें।

जितेन्द्र कुमार
राजकुमार इण्टर कालेज भुजना,चन्दौली
उ०प्र०-

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