काव्य भाषा : हाँ मैंने तुम्हें चुना है – किरण मिश्रा स्वयंसिद्धा नोयडा

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“हाँ मैंने तुम्हें चुना है…”

व्यस्त लम्हों के उस पार…
बन्द आँखों में करती दीदार…
स्पर्श की परिभाषा से परे
मौन के मृदुल थाप पर..
मन वीणा के तार कस..
बस तेरी प्रीति बुना है ..
हां मैंने तुम्हें चुना है..

अश्कों के मोती में…..
होंठों की मुस्कान…में…
हृदय के स्पन्दन में…
सांसों के लय..ताल पर
बस तुम्हें गुना है…
हा मैंने तुम्हें चुना है..!

सुरमई शाम वाले क्षितिज पर…..
भोर की गहरी लालिमा…में …..
बारिश की बूँदों में…
इन्द्रधनुष के रंगों..
कोयल की कूक में .
विरही पपीहे की पुकार में
बस खुद को…सुना है…
हाँ मैंने तुम्हें चुना है…..

मस्जिद की अजान में ,
चर्च की प्रार्थना में…
गुरूदारे की अरदास में……
बजती मन्दिर की घंटियों की झनकार में
बस तुम्हें सुना है..
.हाँ मैंने तुम्हें चुना है…

मां की ममता ,
पिता का दुलार ,
भाई..दोस्त.. हां प्यार सिर्फ तुमसे जाना है..
हाँ मैंने तुम्हें चुना है…!

बहते झरनों की कल कल
निर्मल नदिया की हलचल
मचलती लहरों सी उमड़,
बस प्यासे समन्दर में मिलना है
हाँ मैंने तुम्हें चुना है…!!

गूंजते शब्द नाद में,
अनहद ब्रह्मान्ड में
सहस्रों…ग्रह.नक्षत्रों…की वक्र चाल में भी..
मुझे बस तुममे रमना है.
हाँ मैंने तुम्हें चुना है……!!

किरण मिश्रा स्वयंसिद्धा
नोयडा

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