काव्य भाषा : बचपन की गोली – रामकुबेर सारथी बांदा

275

बालदिवस पर

बचपन की गोली

बचपन में लगती थी यारों सारी दुनियां कितनी भोली,
क्या लौटा सकता है कोई गुल्ली डण्डा काँच की गोली l

घर से बस्ता लेकर जाना,
वो बापू का ख़ूब समझाना,
मगर दोस्तों सँग स्कूल न जाना,
खेत में जाकर पोखर में नहाना,
और दोस्तों सँग खेलना बेवक़्त कीचड़ की होली,
क्या लौटा सकता है कोई गुल्ली डंडा काँच की गोली l

माँ का बुलाना फिर भी भाग जाना
खेलकर आना बेवक़्त खाना खाना,
माँ को झुठलाना बापू से मार खाना,
थोड़ी देर रोना फिर माँ का फुसलाना,
कितनी मीठी लगती यारों अब वो माँ की प्यारी बोली ,
क्या लौटा सकता है कोई गुल्ली डंडा काँच की गोली l

गर्मी के दिनों में खेतों से सूखी मिट्टी लाना,
उसको भिगोना और उसकी गाड़ी बनाना,
फिर दोस्तों सँग आपस में गाड़ी लड़ाना,
गाड़ी टूटना एक दूजे से लड़ना झगड़ना,
फिर भी कभी नहीं टूटी बचपन के यारों की टोली,
क्या लौटा सकता है कोई गुल्ली डंडा काँच की गोली l

वो पहली बारिश का आना,
रद्दी पेज फाड़ना नाव बनाना,
उसमें छोटे कंकड़ डालकर तैराना,
थोड़ी दूर जाना फिर नाव का डूब जाना,
नाव डूबने में भी ख़ुशी थी नहीं निराशा ने आँखें खोली,
क्या लौटा सकता है कोई गुल्ली डंडा काँच की गोली l

बचपन में लगती थी यारों सारी दुनियां कितनी भोली,
क्या लौटा सकता है कोई गुल्ली डंडा काँच की गोली l

रामकुबेर सारथी
बांदा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here