काव्य भाषा : माँ बताती थी – चरनजीत सिंह कुकरेजा, भोपाल

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माँ बताती थी

माँ बताती थी
कि किस तरह
लिपट जाता था मैं उनसे
धूल मिट्टी से सना
मैदान में खेल कूद कर
घर आने के बाद….।
बांध लेती थी वह भी
बिना हिचकिचाहट के
बड़ी आतुरता से मुझे
अपने आलिंगन में….।
देती थी
अपने आँचल का स्नेह स्पर्श,
पौंछती थी
मेरा पसीने से लथ-पथ बदन,
बदलती थी
मेरे मिट्टी से सने वस्त्र
और
खिलाती थी गोद में बिठा कर
अपने हाथों से
रूखे सूखे मगर लज़ीज़ कौर ।

बताती थी माँ,
कि अक्सर ही मैं
खाते-खाते ही सो जाता था
उनकी गोद में..
और वह भी
मुझे छाती से चिपटाये हुए
आहिस्ता से लेट जाती थी
जमीन पर बिछी चटाई पर..।
ताकि,
खुल न जाये मेरी नींद
इक हल्की सी आहट से..।

सच में,
उस आलिंगन के
मीठे और सोंधे एहसास
भुलाए नही भूलते..।
पालथी में लिटा कर,
सीने से चिपटा कर
उनका थपथपाना/गुनगुनाना
सारी थकान मिटा देता था…।
दूसरे दिन के लिए
मुझमें फिर से
नया उत्साह जगा देता था।
दौड़ने के काबिल बना देता था।

सच में!!
उस मर्मस्पर्शी आलिंगन से छिटक कर
जब से फँसा हूँ मैं
माया के आलिंगन में..
माँ बहुत याद आती है..।
और अब तो
मखमली बिछोनों पर भी
करवट बदलते रात कट जाती है ।

सच में !!
माँ के आलिंगन की पूर्ति
कोई भी आलिंगन नही कर पाता है..।
उसके झुर्रियों भरे हाथों का
खुरदुरा मगर प्यार से लबरेज़ स्पर्श
आज भी याद आता है….।
मन में जीने का उत्साह जगाता है..।

चरनजीत सिंह कुकरेजा,
भोपाल

2 COMMENTS

  1. बहुत ही सुंदर और मर्म को छूने वाली भावपूर्ण कविता ।
    ???

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